द इनसाइडर्स: अफसर का शीशमहल खटाई में, ईमानदार आईएएस का ब्लैक इन्वेस्टमेंट, मंत्री का चहेता नपा
द इनसाइडर्स में इस बार पढ़िए आईएफएस अफसरों के कारनामों की "अरण्य ते पृथ्वी स्योनमस्तु" की विशेष श्रृंखला।

कुलदीप सिंगोरिया@9926510865
भोपाल। “अरण्य ते पृथ्वी स्योनमस्तु” — यानी “जंगल पृथ्वी का सौंदर्य और सौम्यता है” — इंडियन फॉरेस्ट सर्विस (IFS) का ध्येय वाक्य, जो अब महज़ ऑफिस की दीवार पर टंगे फ्रेम में मुस्कराता मिलता है। पिछली कड़ी में हमने चर्चा की थी कि भारतीय वन सेवा कैसे वजूद में आई, अब बात करेंगे उस गौरव की जो कभी इस सेवा का गहना था — और उस दीमक की, जो अब इसकी लकड़ी में घर कर गई है। आईएएस और आईपीएस की चकाचौंध के बीच, आईएफएस एक विशिष्ट और विलक्षण सेवा रही — जहां दाखिला पाने के लिए विज्ञान की डिग्री और शरीर में दम-खम भी चाहिए होता था। भाषण से ज़्यादा, जंगल नापने का हुनर चाहिए। शारीरिक कसौटियाँ भी कम नहीं — चार घंटे में 25 किलोमीटर पैदल चलने का मापदंड, मानो कह रहे हों: “जो पसीना नहीं बहाएगा, वह जंगल कैसे बचाएगा?”
आजादी के बाद जब अफसरों की पहचान बंगलों और ब्रीफकेस से नहीं, बूटों की बंधी हुई लेस और जीप के पहियों की धूल से होती थी — तब डीएफओ यानी डिविज़नल फॉरेस्ट ऑफिसर को सचमुच ‘जंगल का राजा’ कहा जाता था। यानी हर तरह के पावर का उपयोग करने में सक्षम होता है और ‘बड़े साहब’ के नाम से पुकारे जाते थे। एसीएफ (ACF) यानी असिस्टेंट कंज़र्वेटर ऑफ फॉरेस्ट — ‘छोटे साहब’ कहलाते थे। डीएफओ तो छोड़िए नाकेदार तक का रूतबा पुलिस के हवलदार जैसा होता था। डीएफओ का दफ्तर जंगल के पास होता था व कोठी के बगल में लकड़ी डिपो, नर्सरी या जड़ी-बूटी का भंडार होता था। यानी “जहां काम, वहीं ठिकाना — और जहां जंगल, वहीं दरबार।” अब अगर कोई समझे कि वन विभाग सिर्फ पेड़ों की देखभाल करता है, तो उसे खजूर पर चढ़ाकर आंधी में छोड़ देना चाहिए। असल में यह सेवा वनों की समूची पारिस्थितिकी का प्रबंधन करती है — जड़ी-बूटियाँ, वनोपज, नर्सरी, जैव-विविधता, टाइगर प्रोजेक्ट, वन महोत्सव, निर्माण कार्य और यहां तक कि वनविज्ञान कॉलेजों का संचालन भी। मतलब, पेड़ से लेकर प्लानिंग तक और गड्ढे से लेकर ग्रांट तक — सब कुछ इसी सेवा के हवाले। यह सेवा IPS से कहीं ज़्यादा विविध और विज्ञान-आधारित है। लेकिन अफ़सोस, बाकी सेवाओं की तरह यहां भी दीमक ने दस्तक दी है — और नज़र पड़ी जंगल पर, इरादा बन गया जायदाद का।
“वनानि देववित्ता, वनानि देवजन्मनि।
वनानि देवबन्धवः, वनानि देवसंश्रयाः॥”
ऋग्वेद का यह श्लोक जब कहता है कि वन देवताओं की संपत्ति हैं, उनके बंधु और आश्रय हैं — तो लगता है जैसे जंगल किसी स्वर्गलोक का टुकड़ा हैं। मगर आईएफएस के कुछ अफसरों ने मान लिया कि देवता तो बात की बात हैं, जंगल अब उनका पर्सनल प्रॉपर्टी रजिस्टर है। जंगल बचाने के लिए बने ‘वन संरक्षक’ धीरे-धीरे ‘वन भक्षक’ में तब्दील होने लगे।
एक ज़माना था जब DFO की जीप गांव में आती थी तो लोग लोटा-पानी छोड़कर ‘साहब आए हैं!’ कहते हुए कतार में खड़े हो जाते थे। अब हालत यह है कि अफसर के नाम से ज्यादा चर्चा होती है उनके टेंडर पास करवाने के जुगाड़ की। जंगल का नक्शा अब जमीनों की खरीद-फरोख्त का टूल बन गया है। और साहब, अगर कोई पूछ बैठे कि “कौन सी सेवा सबसे रोमांचक है?” तो पुराने ज़माने के अफसर कहते थे — “जहाँ हर दिन नया जानवर दिखे, वही असली सर्विस है।” लेकिन अब? अब जानवर कागज़ों में हैं और इंसान जंगल की खाल में। लोकोक्ति है — “बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी?” तो जो अफसर वन-संपदा को बपौती समझ बैठे हैं, वो कब तक जंगल को काट-कूट के महल बनाएंगे? फिलहाल इतना ही। अगले अंक में करेंगे खुलासा — कैसे वन संरक्षक के हाथ में लकड़ी की छड़ी नहीं, रेट लिस्ट होती है? कैसे पेड़ों की कटाई से पहले नीति की छंटाई होती है? और क्यों अब बाघों की संख्या नहीं, बंगलों की गिनती बढ़ रही है?
तब तक याद रखिए —
“जो जंगल बचा पाए, वही अफसर कहलाए।
वरना बाकी तो सब कागज़ के शेर हैं।”
और अब शुरू करते हैं आज का ‘द इनसाइडर्स’ । चटखारे वाले अंदाज में पढ़िए चुटीले किस्सों की किस्सागोई…
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1. सरकारी शीशमहल में भ्रष्टाचार की सीलन
राजधानी की ‘चोर इमली’ में इटली-डोसा लॉबी से संबंध रखने वाले एक साहब का शीशमहल बन रहा है — और ये कोई ताजमहल नहीं, ये है टैक्सपेयर की आंखों में धूल झोंककर बनाई गई कांच की हवेली। साहब ने एक सरकारी बंगला तुड़वाकर उसे निजी स्वप्न महल में बदलने का बीड़ा उठाया, इंजीनियर को सुपारी दी गई, काम शुरू हुआ। लेकिन जैसे ही इंजीनियर वाले विभाग का प्रभार साहब से खिसका, वैसे ही इंजीनियर का कमीशन कैलकुलेटर बोल उठा — और साहब का सपना अधूरा रह गया। अब साहब रात को शीशा नहीं, माथा पीटते हैं। हालांकि काम अभी भी चालू है लेकिन अर्थ के अभाव में धीमा हो गया है।
एक कहावत है — “बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा”, लेकिन यहां छींका टूटा नहीं, बल्कि इंजीनियर की आंख खुल गई। खास बात — इंजीनियर साहब, प्रदेश के सबसे अमीर विधायक के रिश्तेदार हैं जो खुद सहारा समूह की ज़मीनों में फंसे हुए हैं। यानी रिश्ता, रिश्वत और रैकेट — तीनों का त्रिवेणी संगम!
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- ईमानदारी का नया पता
दिल्ली से आए सीनियर आईएएस साहब ने ईमानदारी का जामा ऐसा पहना कि लोग उन्हें गांधीवादी मान बैठे। मीटिंग्स में ज्ञान की ऐसी घुट्टी पिलाते हैं कि कुछ अफसर तो उलटी कर बैठें। दिल्ली एक्सपोजर की वजह से बहुत बारीक निगाह रखते हैं, लेकिन अब परतें खुलने लगी है। यानी की उनकी पोल खुलने लगी है। पता चला है कि शहरी विकास से संबंधित एक संचालनालय के पास उन्होंने ज़मीन खरीदी, वो भी एक ऐसे व्यक्ति के साथ जो भ्रष्टाचार जांच में उलझा है। कागजों पर 5 करोड़, बाजार में 25 करोड़। यही नहीं, अब इस पर एक शानदार इमारत बनाने का काम भी चल रहा है।
एक मुहावरा है — “ऊपर से दूध, नीचे से जहर”।
ईमानदारी भी अब सौदेबाज़ी करने लगी है क्या? साहब से बस इतना ही:
“या तो प्रवचन बंद कीजिए, या फिर पाप-पुण्य की डायरी सार्वजनिक कर दीजिए।”
वैसे तुलसीदास जी ने सच ही कहा है –
“जौं कुटिल कुचाल कपट छूटै, तहँ बिनु प्रीति न होइ।”
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- शादी के न्योते में भी बहानेबाजी
एक कलेक्टर साहब के यहां शहनाइयां बजने वाली हैं। पर साहब ने न्योते भेजे वॉट्सऐप पर — कारण बताया कि ‘पहलगाम हमले’ के कारण खुद नहीं आ सके। अब लोग कह रहे हैं कि जब शादी में महीना भर बाकी है और सीजफायर भी हो चुका है, तो ये कौन सी आधिकारिक मजबूरी थी?
सवाल वही पुराना — “नाच न जाने आंगन टेढ़ा”, या फिर ‘आधिकारिक बहाना और निजी आलस्य’ का नया जुमला!
- मंत्रीजी के खास पर गिरी गाज, फिर भी चालू है प्रेशर पॉलिटिक्स
राजधानी में तैनात एक अफसर, जो मंत्रीजी के खास थे, अब सत्ता की तलवार के नीचे हैं। हादसे के बाद सरकार ने उन्हें हलाल कर दिया, पर साहब कहां मानने वाले थे। अब अन्य जिलों के अपने दोस्तों को वल्लभ भवन की सैर करवा रहे हैं — प्रेशर बनाने का पुराना हथकंडा। सरकार ने संदेश साफ दे दिया है —
“फिलहाल कुछ नहीं होगा। ठंड रखो।”
साहब की हालत अब उस कबूतर जैसी है जो बिल्ली को देखकर आंख मूंद लेता है — “सच से आंख चुराने से मुसीबत नहीं जाती, वह और पास आ जाती है।”
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- 5 स्टार नहीं, खोमचे वाला ब्रेकफास्ट
अब एक सुकून देने वाली खबर। एक आईएएस अफसर हैं जो दूसरे नंबर के नगरीय निकाय को संभाल रहे हैं, लेकिन खान-पान में अब भी ज़मीन से जुड़े हैं। सुबह 7 बजे निकलते हैं और जहां भूख लगती है, वहीं पोहा-जलेबी या समोसे से भूख मिटा लेते हैं। उनके साथ के अफसर 5 स्टार में ब्रेकफास्ट का सपना देखते रह जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो:
“सरकारी कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को अगर ठेले की चटनी में स्वाद मिले, तो समझिए लोकतंत्र अभी जिंदा है।”
अगली कड़ी में: ‘अरण्य ते पृथ्वी स्योनमस्तु’ श्रृंखला की अंतिम प्रस्तुति, सत्ता की गलियों से और भी चटपटी, करारी और कटाक्ष से भरी कहानियों के साथ।
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