द इनसाइडर्स स्पेशल : जल जीवन मिशन में घोटाला, इंजीनियरों ने पानी में डुबो दिए 225 करोड़ रूपए, अब फिर होगी नए उपकरणों की खरीदी
प्रमुख अभियंता कार्यालय पर गड़बड़ी का आरोप, बिना टेंडर और इम्पैनलमेंट के ज्यादा दामों पर सिल्वर आयोनाइजेशन उपकरण की खरीदी हुई।

कुलदीप सिंगोरिया@9926510865
भोपाल | मध्यप्रदेश के इंजीनियरों ने पानी में 225 करोड़ रुपए डुबो दिए हैं। चौंक गए न यह लाइन पढ़कर। लेकिन हकीकत यही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फ्लैगशिप स्कीम जल जीवन मिशन (जेजेएम) में मध्यप्रदेश लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग (पीएचई) के इंजीनियरों की कमीशनखोरी के चक्कर में इतना बड़ा नुकसान हो गया है।
तमाम गड़बड़ियों को अंजाम देते हुए इंजीनियरों ने बिना किसी टेंडर या इम्पैनलमेंट के पानी साफ करने वाले ऐसे यंत्र या उपकरण खरीदे जिससे एक बूंद पानी भी साफ नहीं हुआ। आईआईटी चेन्नई ने जब इसकी जांच की तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। आनन-फानन में विभाग ने नए यंत्र खरीदी पर रोक लगा दी है। लेकिन जिन जगहों पर यह यंत्र लगे हैं, उनकी जगह दूसरे प्रकार के नए यंत्र लगाने का प्रस्ताव है। यानी फिर से इतनी या फिर इससे भी ज्यादा रकम खर्च की जाएगी।
अब आपको सिलसिलेवार भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी की पूरी कहानी मय सबूत बताते हैं।
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पार्ट 1: जल जीवन मिशन की पटकथा
15 अगस्त 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जल जीवन मिशन को लॉन्च किया। लक्ष्य तय किया गया साल 2024 तक ग्रामीण इलाकों में हर घर नल से जल पहुंचाना। मध्यप्रदेश में पीएचई को यह जिम्मा मिला। मल्टी विलेज स्कीम का काम जल निगम ने किया तो सिंगल विलेज में खुद पीएचई ने। पीएचई ने 17911 करोड़ रूपए से 27150 गांवों के लिए इंडीविजुअल स्कीम बनाकर काम शुरू किया। 2024 खत्म होने में एक महीना से भी कम वक्त बाकी है लेकिन लक्ष्य पूरा नहीं हुआ। इसकी पड़ताल अगले अंक में करेंगे। वहीं, गड़बड़ियों, भ्रष्टाचार और घपलों-घोटालों के आरोपों से पूरी स्कीम संकट में आ गई। नौबत यह है कि लागत में करीब 3200 करोड़ रूपए का इजाफा हो गया है। और ठेकेदार पेमेंट न मिलने से परेशान है। जहां स्कीमें पूरी हो गई है, वहां संचालन तक की व्यवस्था नहीं है।
पार्ट 2: गड़बड़ी को अंजाम
आज की खबर हम पहली और बड़ी गड़बड़ी से शुरूआत करते हैं। तो पीएचई के इंजीनियरों ने आनन-फानन में डीपीआर और टेंडर जारी कर गांवों में पानी सप्लाई के लिए ट्यूबवेल कराए और फिर टंकियों में पानी स्टोर कर सप्लाई के पाइपलाइन डाली। फिर अचानक ही ठेकेदारों को कहा कि वे पानी की शुद्ध करने के लिए सेंको कंपनी से सिल्वर आयोनाइजेशन वाटर डिसइन्फेक्शन एक्विपमेंट खरीदें। कुल 27150 गांवों में दो से तीन ट्यूबवेल हैं। औसत दो भी मानें तो 45000। मतलब इतने ही सिल्वर आयोनाइजेशन एक्विटमेंट लगाए गए। इनकी कीमत प्रति उपकरण 35 हजार से 80 हजार रुपए थी। औसत 50 हजार रूपए भी माने तो 225 करोड़ रूपए। इतनी बड़ी राशि के लिए गड़बड़ी की क्या तरीके अपनाए, अब उन्हें जानिए।
पहली गड़बड़ी – केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय के पानी सप्लाई के मैन्यूअल सीपीएचईईओ के मुताबिक शुद्ध भूजल के लिए 9 मीटर से अधिक गहरे स्रोत का होना जरूरी है। लिहाजा, ट्यूबवेल में कैसिंग 9 मीटर की डाली जाती है। यही नहीं, खुद मध्यप्रदेश के पीएचई का 17 दिसंबर 83 के एक पत्र में भी इसकी जानकारी सभी इंजीनियरों को दी गई है। जल जीवन मिशन में इसी बात को ध्यान में रखते हुए गहराई 9 मीटर से ज्यादा है रखी है। फिर भी, पानी की जांच किए बिना सिल्वर आयोनाइजेशन एक्विपमेंट की खरीदी की अनुसंशा ईएनसी ऑफिस ने कर दी। हमारे इनसाइडर्स के मुताबिक इसमें अफसरों ने संबंधित कंपनी से करोड़ों रूपए में डील की।
दूसरी गड़बड़ी – सरकारी विभागों में खरीदी के लिए सर्वमान्य प्रकिया टेंडर जारी करने की है। इसके अलावा कंपनियों से उपकरण खरीदने हैं तो गुणवत्ता आदि की जांच के बाद उसका इम्पैनलमेंट किया जाता है। इस मामले में यह दोनों ही प्रक्रिया न अपनाकर ठेकेदारों के जरिए सेंको कंपनी से सीधे खरीदी करवा दी गई। और इसे नॉन एसओआर आइटम बता कर ठेकेदारों के बिल पास कर दिए गए। खास बात यह है कि नॉन एसओआर आइटम्स के लिए भी सक्षम स्तर से मंजूरी नहीं ली गई।
तीसरी गड़बड़ी – खरीदी में यह आरोप भी लगा है कि इनकी कीमतें बाजार से बहुत ज्यादा है। ऑनलाइन शॉपिंग कंपनियों की वेबसाइट पर जब इनकी कीमत देखी गई तो यह उपकरण पांच हजार से 20 हजार रूपए तक मिले। यदि बल्क में खरीदें जाए तो कीमत और भी कम मिलेगी। जबकि ठेकेदारों ने 35 हजार से 80 हजार रूपए तक के बिल लगाए।
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पार्ट 3 : आईआईटी की रिपोर्ट
मद्रास आईआईटी के एनवायर्नमेंट इंजीनियरिंग डिवीजन को हाइड्रेप्चर टेक्नोलॉजी कंपनी के अनुरोध पर उनके पानी साफ करने वाले उपकरण ‘HYDRION की जांच का अनुरोध मिला। यह उपकरण सॉल्ट बेस्ड इलेक्ट्रो क्लोरीनेशन सिस्टम पर आधारित था। लिहाजा तीन सदस्यीय टीम ने इसके साथ ही सिल्वर आयोनाइजेशन उपकरण की कम्परेटिव स्टडी की। इस स्टडी में खुलासा हुआ कि सिल्वर आयोनाइजेशन उपकरण का दुनिया भर में सिर्फ 1 प्रतिशत उपयोग किया जाता है जबकि इलेक्ट्रो क्लोरीनेटर का 98 प्रतिशत। एकमात्र मध्यप्रदेश राज्य ही ऐसा था जिसने क्लोरीनेटर की बजाए सिल्वर आयोनाइजेशन उपकरण को चुना। सिल्वर आयोनाइजेशन की रिलायबिलिटी लो है। केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय ने इसे अप्रूव्ड नहीं किया है। माल्सेकर कमेटी की रिपोर्ट में भी इसका जिक्र नहीं है। इसे बनाने वाली कंपनियां बहुत ही कम है और इसकी सूटेबिलिटी सिर्फ घरेलू उपयोग के लिए है। किसी भी राज्य में एसओआर के रूप में यह स्वीकृत नहीं है। सबसे बड़ी बात पेयजल को डिसइंफेक्टेड करने में यह प्रभावी नहीं है। क्लोरीनेटर के लिए हर साल करीब 3 हजार रूपए का खर्च है। जबकि सिल्वर आयोनाइजेशन में हर चार महीने में इलेक्ट्रोड बदलना पड़ता है। इसकी रिपेयरिंग और मेंटेनेंस सिर्फ मैन्युफैक्चरर कर सकता है जबकि क्लोरीनेटर को स्थानीय स्तर पर सुधारा जा सकता है। क्लोरीनेटर को अधिकांश एजेंसियों ने अपनाया है जबकि सिल्वर आयानोइजेशन को कुछ एक ने ही। क्लोरीनेटर की टेस्टिंग किट भारत में कई जगह पर बनती है जबकि सिल्वर आयानाइजेशन की विदेशों से आयात की जाती है। इस तरह, आईआईटी की टीम ने 31 बिंदुओं पर जांच कर सिल्वर आयोनाइजेशन उपकरण पर सवाल उठाए हैं।
पार्ट 4: नई खरीदी में फिर कमीशनबाजी
इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद पीएचई के अफसरों ने सिल्वर आयोनाइजेशन उपकरण की खरीदी बंद कर दी। और प्रमुख अभियंता कार्यालय में नया प्रस्ताव तैयार किया गया। इसमें आईआईटी द्वारा सुझाए गए सॉल्ट बेस्ड क्लोरीनेटर की खरीदी का प्रस्ताव है। इन्हें सिल्वर आयोनाइजेशन उपकरण से रिप्लेस किया जाएगा। तकनीकी समिति इसके इम्पैनेलमेंट के लिए जांच कर रही है। जबकि पहले की खरीदी में तकनीकी समिति ने यह काम नहीं किया था।
पार्ट 5: अफसरों का बचाव
पीएचई के सचिव पी नरहरी कहते हैं कि उन्हें सिल्वर आयोनाइजेशन उपकरण की ज्यादा जानकारी नहीं है। लेकिन यह जरूर याद है कि केंद्र सरकार ने भी पानी साफ करने के लिए उपकरणों की जरूरत बताई थी। शायद पहले इसी अनुशंसा के आधार पर उपकरण खरीदे गए हो। हालांकि वे इस सवाल को टाल गए कि जिन स्थानों पर पानी साफ है तो फिर नए उपकरणों की खरीदी क्यों करनी है। हमने उनसे एक और सवाल पूछा कि जब अभी तक मिशन के तहत बने प्रोजेक्ट्स के रखरखाव व संचालन के लिए कोई एजेंसी या मैकनिज्म ही तैयार नहीं है तो फिर उपकरणों की खरीदी क्यों की गई। उनका कहना था कि सिल्वर आयानाइजेशन खरीदी का मामला उनके कार्यकाल का नहीं है। इसमें गड़बड़ी हुई तो जांच कराएंगे। जहां तक नए उपकरणों की खरीदी की बात है तो पहले तकनीकी समिति हर पहलुओं की जांच करेगी, उसकी रिपोर्ट के बाद ही कोई फैसला लिया जाएगा।
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पार्ट 6 : क्या पीएचई अशुद्ध पानी सप्लाई कर रहा है
आईआईटी की रिपोर्ट से यह तो साफ है कि सिल्वर आयोनाइजेशन से बल्क में पानी शुद्ध होने पर संदेह है। यदि हम सरकार के 9 मीटर से ज्यादा गहराई वाले भूजल को शुद्ध मानने का नियम भूल जाए (जिस पीएचई ने इस खरीदी के लिए भुलाया भी है।) तो फिर क्या पूरे मध्यप्रदेश को पीएचई अशुद्ध जल सप्लाई कर रहा है? यह सवाल इसलिए भी गंभीर है क्योंकि हाल ही में भिंड समेत कुछ जिलों में पीएचई द्वारा सप्लाई किए गए दूषित पानी से लोगों की मौत तक हो चुकी है।
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