द इनसाइडर्स: आईएएस की वेन्यू में लक्ष्मी कृपा, बोल्ड मैडम के बोल से पीएस हुए लाल, त्रिकालदर्शी सचिव ने रोका सियासी अपशकुन
द इनसाइडर्स में आईएफएस अफसरों के कारनामों की "अरण्य ते पृथ्वी स्योनमस्तु" श्रृंखला का नया अंक।

कुलदीप सिंगोरिया@9926510865
भोपाल। गतांक से आगे… “अरण्य ते पृथ्वी स्योनमस्तु” — भारतीय वन सेवा (IFS) के इस ध्येय वाक्य को अफसर अब मात्र कैलिग्राफी का नमूना समझते हैं — जिसे विज़िटिंग कार्ड पर सोने की चमक वाली स्याही में छपवाकर, शौक़ से बांटा जाता है, पर नज़र उठाकर पढ़ा नहीं जाता। कभी यह ध्येय वाक्य अफसरों के विचारों में गूंजता था, आज विज़न में गुम है। इसकी एक वजह यह है कि एक समय था जब एक-एक अफसर चुनकर आता था — जंगलों की गोद में सेवा करने का जुनून लिए। मगर फिर आया ‘मास अपॉइंटमेंट युग’, जब अफसरों की बड़ी खेप (बैच) एक साथ आई — किसी महाभारत की सेना की तरह, जो आस्था से ज़्यादा अर्जुन बनने की हड़बड़ी में थी। सबको रथ चाहिए था, नाम-पद-प्रतिष्ठा चाहिए थी, लेकिन कमाई? वो घटती चली गई। अब भला अफसर पदनाम पर समझौता करे?
नहीं, साहब! इसलिए जो पद पहले जंगल के राजा का था, वहाँ अब राज्यपालनुमा अफसर बैठा है — यानीबूट की बजाय बूटनी की दुकान पर अफसर ज्यादा दिखाई देने लगे। वे जंगल कोलैंड यूज़ प्लानिंग की स्कीम मान बैठे। इसके चलते अब इस जंगल-जगत में अफसर भी तीन रंगों में रंगे पाए जाते हैं —
कुछ हरित क्रांति के सच्चे सपूत, तो कुछ हरियाली के हरामी चश्मे वाले वणिक।
आज हम बात करेंगे उस पहली किस्म की जिनकी नसों में अभी भी साल बीज का रोमांच दौड़ता है। इन्हें अबूझमाड़ या सतपुड़ा के ऊंगते अनमने जंगलों में जाना हो या नक्सल-प्रभावित बेल्ट में गश्त लगानी हो — ये ट्रांज़िट रजिस्टर लिए निकल पड़ते हैं। पूर्व में अधिकारी 12 दिन तक जंगल में डेरा जमाते थे। पर यह किस्म अब भी दो-तीन दिनों जंगल नाप लेते हैं। इनके लिए जड़ी-बूटियाँ सिर्फ औषधि नहीं, संस्कृति हैं। आदिवासी जनजीवन, बीट गार्ड और नाकेदारों की महत्ता यह खूब जानते हैं। लिहाजा, उनसे उतनी आत्मीयता से मिलते हैं जैसे कोई पुराना रिश्ता फिर से जुड़ रहा हो। ये वो लोग हैं जो जंगल में “क्लाइमेट रिपोर्ट तैयार करने नहीं, पत्तियों की खड़क सुनने जाते हैं।” और हाँ, अगर इन्हें कहीं लक्ष्मी माता बिना सताए प्रकट हो भी जाएं — यानी कोई टेंडर या स्कीम से दो-चार हज़ार की आहुतियाँ गिर ही जाएं — तो ये द्रौपदी नहीं बनते जो सब बाँट दें, ना ही कुंभकरण की तरह सो जाते हैं।
ये उसे “कृपा” मानकर अपने विवेक की छांव में रख भी लेते हैं — न लोभ में, न भय में। ऐसे अफसरों की तादाद भले ही कम हो, मगर ये उस अकेले दीपक की तरह हैं जो बाघ की दहाड़ों में और जंगल की अंधेरी सुरंग में टिमटिमा रहे हैं। और अब शुरू करते हैं आज का द इनसाइडर्स का विशेष अंक, जिसमें अफसरशाही का नाट्यशास्त्र है और वसूली की रामायण है! चटखारे वाले अंदाज में पढ़िए चुटीले किस्सों की किस्सागोई…
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“बंगला बनने की कथा – दक्षिण से उठी हवाएं, उत्तर में हिलने लगे पत्ते”
दक्षिण भारत में एक साहब ने सपना देखा — संगमरमर का बंगला, जिसमें वातानुकूलित ईमानदारी और टेंडरनुमा नैतिकता बहती हो। सपना निजी, पर वसूली सार्वजनिक। हर जिले से ₹3 लाख की ‘स्वैच्छिक सेवा राशि’, और टारगेट? डेढ़ से दो करोड़। जैसे भगवान राम ने वानर सेना बनाई थी, वैसे ही साहब के ‘प्रशासनिक हनुमान’ निकल पड़े — कहीं कोई इंजीनियर टालमटोल करे, तो ‘ट्रांसफर यंत्र’ से डराया गया। कहा- ” ये वही विभाग है जहाँ अफसर का बंगला ईंटों से नहीं, इंजीनियरों की हड्डियों से बनता है।” फिर भी किसी ने मना किया तो उन्हें बताया गया: “जिस कुर्सी पर बैठे हो, उसकी तीन टांगें साहब के बंगले से जुड़ी हैं।” यह अलग बात है कि साहब ने हनुमान को इस वसूली के लिए वाकई में कहा है या नहीं। ऐसा तो नहीं कि वह स्वामीभक्ति की पराकाष्ठा में स्वप्रेरणा से काम पर लग गया।
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“विक्रमादित्य का सिंहासन”
देवी अहिल्याबाई के शहर इंदौर में कैबिनेट बैठक थी। सरकार भी पास के ही राजा विक्रमादित्य के शहर उज्जैन से आते हैं। तो अफसरों ने सोचा: “यथार्थ को छोड़ो, प्रतीकवाद में घुस जाते हैं!” सरकार की कुर्सी बन गई विक्रमादित्य की — सिंहासन की हूबहू नकल। लगा जैसे मुख्यमंत्री नहीं, स्वयं सम्राट आ रहे हों। लेकिन जैसे ही ‘त्रिकालदर्शी सचिव’ की दृष्टि उस कुर्सी पर पड़ी — चेहरे का रंग वैसा हुआ जैसा युधिष्ठिर को द्रौपदी के जुए में हारने के बाद हुआ था। तो उन्होंने कहा – “फौरन बदलिए इसे, कहीं सियासी शगुन न बिगड़ जाए।”
किसी ने ठीक ही कहा है —
“राजा वही होता है जो कुर्सी देख वक्त समझ जाए,
बाकी तो कुर्सी देखकर खुद को राजा समझ लेते हैं।”
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बोल्ड आईएएस मैडम के सुउवाच
मैडम — यानी ‘संवाद की देवी’, बोलती हैं तो लगता है जैसे “संविधान की धारा 19(1)(a)” साक्षात प्रकट हो गई हो। तो उनका एक वाक्या पढ़िए। आईएएस मैडम के विभाग के बड़े साहब सामने थे। वही साहब, जो विपश्यना से लौटे थे, सोच रहे थे कि अब पाप और पुण्य का भेद मिट गया। लेकिन जैसे ही मैडम की दृष्टि उनकी पैंट पर गई, वाणी फूटी: “सर, कितनी घटिया पेंट है, इससे अच्छा तो पैंट ही न पहनते।” दरवाजे के बाहर खड़े चपरासी से लेकर अंदर बैठे लिपिक तक ने एक साथ गर्दन झुकाई — जैसे कोई पितामह वचन सुन गए हों। और साहब का चेहरा लाल सलाम की बजाय लाल गुलाब हो गया।
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बड़े कप्तान की सूची का पोस्टमार्टम
एक सूची आई — पर पीएचक्यू से निकलते ही सरकार के पास पहुंचते-पहुंचते इसमें कुछ नाम ‘अलौकिक रूप’ से बदल गए। जैसे महाभारत में एकलव्य का अंगूठा कट गया था, वैसे ही सूची में ‘सरकारी पसंद’ के नाम गायब हो गए। शंका हुई, माथा ठनका — और फिर ‘राजकीय तांडव’ हुआ। लिहाजा, अब सरकार के यहां से ही सूची फिर से बन रही है — इस बार कड़ी चेतावनी के साथ: “अगर फिर से गड़बड़ हुई, तो सूची नहीं, सूचीकर्ता बदले जाएंगे!” अब सूची का कोड भी बता दें:- एडिशनल एसपी
“जनसंपर्क या विपक्ष का संपर्क?”
विपक्ष के तेवर ढीले क्यों हैं? क्यों विरोध के मुद्दों में धार नहीं?
जवाब: “जनसंपर्क विभाग में बैठे कुछ लोग विपक्ष के मुद्दों को हवा देने वाले मीडिया विभाग के कुछ माननीयों को ‘एसी के नीचे’ ठंडा कर देते हैं।”
इसलिए कहा जा रहा है – गाँधीजी के तीन बंदर आज के दौर में सुनता है, देखता है, लेकिन मौके पर बोलने से बचता है। लिहाजा, विपक्ष के नेताजी हैरान — “हमने तो आग लगाई थी!”
मीडिया बोला — “हमने तो फायर फाइटिंग कर दी।”
साहब की “वेन्यू” पुराण कथा
बात त्रेतायुग की नहीं, अफसरशाही युग की है। एक ऐसे युग की, जहाँ नारद मुनि को वीणा के तार नहीं, टेंडर की फ़ाइलें सुनाई देती हैं। जिस प्रकार कुबेर अपने खजाने पर इतराते थे, वैसे ही हमारे एक साहब अपनी वेन्यू कार पर गर्व करते हैं। यह गाड़ी नहीं, एक मायावी यंत्र है, जहाँ बिना दक्षिणा दिए दर्शन निषिद्ध हैं। कहते हैं, जब ठेकेदार उनके दरबार में हाज़िर होते, तो वे फाइल नहीं, गाड़ी के पीछे का दरवाज़ा दिखाते — बिल्कुल जैसे रावण सोने की लंका दिखाकर गुप्त प्रवेश का रास्ता पूछता था। एक बार एक भोले ठेकेदार ने नियमों की बात की। साहब बोले, “हे मूढ़! नियम तो विभीषण भी मानता था, पर सिंहासन तो रावण के पास ही था।” और फिर इशारा किया वेन्यू की ओर।
अब साहब देवलोक… माफ़ कीजिए, दिल्ली दरबार की सेवा में हैं। लेकिन सूत्र बताते हैं, लक्ष्मी आज भी उसी गाड़ी में GPS ऑन कर उतरती हैं।
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समापन में: ये हैं आज की द इनसाइडर्स की बृहस्पति नीति।
जहाँ बंगलों के लिए वसूली,
कुर्सियों में सत्ता का भूत,
पैंट में प्रतिष्ठा की परीक्षा,
और सूचियों में लोकतंत्र की लीला चल रही है।
याद रखिए:
“जहाँ अफसर का बंगला दिखे,
वहाँ जनता की ईंटें जरूर गिरी होंगी।”
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