द इनसाइडर्स: IPS की बेरुख़ी, इंजीनियर की जमीन हुई बायपास, मंदिर की दान पेटी में रिश्वत का अनूठा किस्सा

द इनसाइडर्स में इस बार पढ़िए राज्य प्रशासनिक सेवा के अफसरों पर केंद्रित श्रंखला की तीसरी कड़ी

कुलदीप सिंगोरिया@9926510865

भोपाल | राज्य प्रशासनिक सेवा (एसएएस) या राज्य प्रशासनिक हम्माल सेवा की आगे की कड़ी…शैशव अवस्था के बाद ..युवा अवस्था (अपर कलेक्टरी) को जैसे ही इस सेवा के तीनों कुमार (एकलव्य,मध्यम और कनिष्ठ) पहुंचते हैं, वैसे ही तीनों में अंतर स्पष्ट दिखना शुरू हो जाता है। दर असल शैशव अवस्था (डिप्टी और जॉइंट कलेक्टरी ) में RR द्वारा एकलव्य कुमारों का बधियाकरण करके इन्हें प्रशासनिक बोनसाई बना कर अपने गार्डन में पैंसठिये की तरह सजा के रखने की पुरजोर कोशिश करते हैं। पर ये होशियार, प्रतिभा के धनी किंतु किस्मत के मारे (UPSC नहीं निकाल पाने के कारण) एकलव्य कुमार अपने व्यवहारिक चातुर्य से जैसे तैसे शैशव अवस्था निकालते हैं और अपर कलेक्टरी मिलते ही …अपने शैशव काल में अर्जित धन-बल, सम्बन्ध-बल और अनुभव चातुर्य के दम पर निकल पड़ते हैं किसी नगर निगम,अभिकरण,प्राधिकरण, बोर्ड अथवा अन्य मलाईदार संस्था की ओर…अपेक्षाकृत ज्यादा स्वतंत्रता के साथ अपना कौशल और पराक्रम दिखाने….। ऐसा पाया जाता है कि बहुधा ये एक्लव्य कुमार संख्या में भले ही कम हों पर कई RR से प्रशासनिक क्षमताओं में बेहतर साबित होते हैं। अक्सर बहुत सारे RR इनसे व्यक्तिगत रूप में अनौपचारिक रूप से सलाह लेते हैं, पर सार्वजनिक क्रेडिट नहीं देते। हमने इनका नामकरण “एकलव्य कुमार” इसलिए किया था क्योंकि ये बिना मजबूत राजकुल(योग:कर्मसु कौशलम  अर्थात UPSC) के स्वयं की प्रतिभा के दम पर अपना मकाम बना ही लेते हैं। प्रशासनिक समुदाय में ये अपनी स्थिति ऐसी बना लेते हैं कि LOVE ME OR HATE ME BUT CAN NOT IGNORE ME”...वस्तुतः ये एकलव्य कुमार मसूरी में प्रशासनिक प्रशिक्षण में अच्छे फैकल्टी साबित हो सकते हैं, जैसे इंडियन मिलट्री अकादमी IMA देहरादून में नए रंगरूट “जोकरों” को अक्सर JCO सूबेदार फील्ड ट्रेनिंग देते हैं, पर RR समुदाय का सुपर EGO इनको नजरअंदाज करता है। इस बीच MPPSC को एवेरेस्ट फतह मानने वाले कनिष्ठ कुमार अपने आपको एक या दो RR के श्री चरणों में समर्पित कर उन्ही से जीवन भर पोस्टिंग की फरियाद करते रहते हैं। कमजोर लताओं का मजबूत पेड़ से लिपटना प्राकृतिक होता है। कभी कभी कनिष्ठ कुमार अपने ही कैडर के एकलव्य कुमार को अपना गाड फादर बना लेते हैं। रहे मध्यम कुमार ..हमेशा की तरह कनफुजियाये हुए ..एकलव्य और कनिष्ठ भावों के बीच डोलते रहते हैं। शेष अगले अंक में….और अब शुरू करते हैं द इनसाइडर्स के चुटीले किस्से मजेदार अंदाज में…

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ये सूची काहे नहीं आती बे

“साला ये दुख काहे खत्म नहीं होता बे” — ‘मसान’ फिल्म की इस मर्मांतक पंक्ति में जितना दर्द बनारस के घाट पर दिखता है, उससे कम टीस भोपाल के मंत्रालय गलियारों में नहीं है। अंतर बस इतना है कि वहाँ शव जलते हैं, यहाँ उम्मीदें। इसलिए लोग कह रहे हैं कि साला, ये सूची काहे नहीं आती बे। खैर, अफसरशाही बिरादरी से यही कहना है — हे राजपथ के राजद्वार के द्वारपालों, थोड़े दिन और धैर्य रखिए। देर-सबेर सूचीय वसुंधरा प्रकट अवश्य होगी। फ़िलहाल खबर यह है कि सूची लगभग तैयार है, बस एक “डिस्कशन” बाकी है। जैसे ही ये उच्चस्तरीय विमर्श पूर्ण होगा, वैसे ही सूची अवतरित हो जाएगी। तब तक अफसर कृपया “तपस्या मुद्रा” में रहें।

“सूची आती है, सूची जाती है,
कभी पद दिलाती है, कभी सूली चढ़ाती है।

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शार्गिदों ने किया विद्रोह

एक समय था जब ईएनसी रहे एक इंजीनियर साहब के चरणों में दो शार्गिद — ‘पिकीं सर’ और ‘मोमो सर’ — श्रद्धा-सुमन अर्पित करते थे। अब इंजीनियर साहब रिटायरमेंट के बाद पानी से जुड़े एक निगम में संविदा पर प्रोजेक्ट डायरेक्टर बनने की जुगत भिड़ा रहे हैं। मंत्री ने नोटशीट लिख दी है लेकिन बड़े साहब और यहीं पदस्थ एक आईएएस उनकी राह में रोड़ा बने हुए हैं। अब दुखद प्रसंग यह है कि जिन दोनों शार्गिदों ने कभी इनसे थ्योरी ऑफ करप्शन इंजीनियरिंग पढ़ी थी, अब “हम आपके थे कभी” की तर्ज पर बोल उठे — “अब कौन साहब? अब हम खुद साहब हैं।” असल में, दोनों ही चाहते हैं कि वही प्रोजेक्ट डायरेक्टर बन जाएं। इसीलिए “गुरु-द्रोह” का पहला आधुनिक अध्याय राजधानी में लिखा गया है।

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ट्रांसफर की महाभारत

ट्रांसफर सीजन समाप्त हुआ। और उसके समापन पर शहरों से सबंधित विभाग में जो दृश्य खिंचा, वो किसी ‘वृहद-शांति पर्व’ से कम नहीं था। बंद कमरों में हुई साजिशों से कई बड़े योद्धा शहीद कर दिए। जिन योद्धाओं को अपने पर गुमान था, वे प्रदेश के गुमनाम हिस्सों में फेंक दिए गए। सबसे ज्यादा संचालनालय और भोपाल में मौजूद संबंधित संस्थाएं प्रभावित हुईं। कहानी सिर्फ इतनी है कि जिन्होंने मंत्री के कारिंदों को कभी अनदेखी की थी, उनके साथ बदलापुर किया गया। कुछ को ज्यादा ही गुमान था तो उनके होश भी ठिकाने लगाए गए। और विभाग के साहब धृतराष्ट्र बनकर सब अनदेखा करते रहे।

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मंत्राणी का जमीन लगाव

राजनीति में जब कोई बहनजी बहुत शांत, सौम्य और विनम्र दिखने लगे तो समझ लीजिए कि बैकएंड में कुछ न कुछ सीरियस डाउनलोड चल रहा है। ऐसी ही एक मंत्राणी हैं — कोई हो हल्ला नहीं, कोई तमाशा नहीं। अफसर उनसे बहुत खुश रहते हैं, लेकिन क्षेत्र के कार्यकर्ता कह रहे हैं — “बहनजी इतनी सीधी हैं कि कोई काम ही नहीं हो पाता।” मगर मामला कुछ और है। उनका यह सीधापन दरअसल कार्यकर्ताओं और जनता से नज़रें बचाने का किला है। असल खेल है — “ज़मीन पर निवेश” का। बंगले पर जो “प्राप्ति सामग्री” आती है, वह सीधे राजधानी से सटे सीहोर रोड की ज़मीनों में तब्दील हो रही है। सरकारी फाइलों से निकली ताक़त सीधे जमीन की रजिस्ट्री में जाकर बैठ गई है।

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पूर्व बड़े साहब के सीनियर भी आए लपेटे में

“धूप में चप्पल घिसाई और छांव में लूट गए…” यह कहावत इन दिनों एक रिटायर्ड ईएनसी पर सटीक बैठ रही है। यह साहब एक पूर्व बड़े साहब के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के सीनियर हुआ करते थे। इस नाते पूर्व बड़े साहब ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए सीनियर को कंस्ट्रक्शन से जुड़े विभाग में ईएनसी बनवा दिया था। इसमें हुआ झोल पुरानी बात है। लेकिन पूर्व बड़े साहब की वजह से इंजीनियर ने जमकर सत्ता सुख भोगा। पूरे 65 साल की सेवा के बाद साहब एक रोड से संबंधित संस्था से अलविदा हुए तो भोपाल के नए प्रस्तावित बायपास पर जमीन खरीद ली। सब सेट था। लेकिन विधाता और राजनीति दोनों का कोई भरोसा नहीं। पूर्व बड़े साहब का जैसे ही सूर्य अस्त हुआ, उस दिन से इंजीनियर की किस्मत में भी अलाइनमेंट बदल गया। इसके चलते साहब की जमीन बायपास से बाहर हो गई। वहीं, प्रोजेक्ट में देरी के बाद स्वभाविक तौर पर लागत बढ़ना थी लेकिन नए अलाइनमेंट की वजह से यह घट गई।

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एसपी साहब ने किया शर्मसार

बचपन में पढ़ा था — “नारी तू नारायणी…” अब पुलिस विभाग के कुछ अफसर मान बैठे हैं — “नारी तू अनावश्यक लीव की मशीनरी!” ताज़ा मामला उस जिले का है जहां के एसपी साहब शायद थर्मामीटर से संवेदना मापते हैं और हर इंसानी गुहार को स्टैंडिंग ऑर्डर के खिलाफ नोट शीट मानते हैं। कुछ महिला पुलिसकर्मी जो गर्भावस्था के अंतिम दौर में थीं, उन्होंने साहब से बड़ी ही सरलता से प्रार्थना की — “सर, पेट भारी है… और ट्रेनिंग का बुलावा इंदौर या भोपाल से आया है…” साहब बोले: “गर्भ हो या गरमी, नियम सब पर लागू होता है!” वाह साहब, आप तो संविधान की 370 धारा जैसे निकले! बड़े कप्तान यानी पुलिस के मुखिया तक जब गुहार पहुंची, तो फिर वही हुआ जो सिस्टम में अंततः होता ही हैसाहब की ट्रेनिंग शुरू हो गई… संवेदना विषय पर!  अब शायद उन्हें समझ आए कि नियम के साथ-साथ मानवता का “एम्पैथी पेपर” भी होता है।

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दान पेटी में रिश्वत लेने का अनोखा तरीका

किस्सा बहुत पुराना है। लेकिन है सामयिक। साथ ही, योग दिवस पर योग करने के बाद गुदगुदाने के लिहाज से अच्छा भी है। भोपाल नगर सरकार में चौहान नाम के एक अधिकारी हुआ करते थे। उनका रिश्वत लेने का तरीका इतना कलात्मक था कि साहित्यिक गोष्ठियों में भी सुनाया जा सकता है। तो साहब जब शहर सरकार में बिल्डरों से लेकर ठेकेदारों से वास्ता रखते थे, तो उन्हें रिश्वत की रकम देने की खास हिदायत देते थे। वे कहते थे — “मैं रिश्वत नहीं लेता। भगवान की सेवा करता हूं। रचना नगर के मंदिर की दान पेटी में लिफाफा डाल दीजिए।”  खैर, बिल्डर उनकी अदा से परिचित थे ही। इसलिए ईमानदारी के साथ दान पेटी में लिफाफा डाल देते थे। शाम को चौहान साहब मंदिर जाते और दान पेटी खोलकर रकम घर ले आते। यह बात अलग है कि जब इनकम टैक्स का छापा पड़ा तो यह पाक रकम सबके सामने आ गई। लेकिन पाक रकम की वजह से लोकायुक्त से बच गए थे।

और चलते-चलते – “इस सिस्टम में रिश्वत भी पवित्र है, ट्रांसफर भी आध्यात्मिक है, पोस्टिंग भी ध्यान है और अफसर – हरिशचंद्र की औलादें। फर्क बस इतना है कि यहां सत्य बेचकर रजिस्ट्री होती है।”

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