द इनसाइडर्स: मंत्री जी का डिजिटल लोकतंत्र, आईपीएस की सीआर न लिख पाने से एसीएस मैडम भनभनाई, एमडी साहब की आड़ में नया वसूली मंत्र

द इनसाइडर्स में इस बार पढ़िए प्रशासन में चुगली आधारित अर्थव्यवस्था की दूसरी श्रृंखला।

कुलदीप सिंगोरिया@9926510865

भोपाल |  चुगली आधारित अर्थव्यवस्था के दूसरे अंक में बात करेंगे फीडबैक की। फीडबैक” हर प्रशासक, हर मैनेजर, हर व्यवसायी, हर कलाकार  मतलब हर सफलता के लिए जरूरी है। फीडबैक से ही कर्ता, क्रिया या प्रोडक्ट में सुधार सम्भव हो सकता है लेकिन दिक्कत तब होती है जब फीडबैक “चुगली” का रूप धारण कर लेता है। कोई भी अधिकारी किसी नई पोस्टिंग में जाता है तो जिला…विभाग…अधिकारियों -कर्मचारियों के बारे में जानकारी लेना लाजमी है। इसके लिए डेटा तो गूगल और फ़ाइल दे देतीं हैं पर अनकथ्य की कथाओं को समझने के लिए जानकारी लेना जरूरी होता है। पहले परिपाटी यह थी कि चार्ज हैंड ओवर करने वाले अधिकारी अक्सर शाम को कॉकटेल डिनर पर अपने घर में इनपुट्स दिया करते थे। लेकिन आजकल या तो हैंडओवर सौहाद्रपूर्ण नहीं होते या होते भी हैं तो आने वाले को जाने वाले अपनी मेहनत से कमाई हुई जानकारी फ्री में नहीं देना चाहते या देते भी हैं तो आधी अधूरी। तो साहब आजकल अक्सर इन नए साहब के इनपुट्स के सोर्स होते हैं इनके ड्राइवर, स्टेनो/रीडर, खानसामा, कोई पत्रकार, एक या दो मातहत अधिकारी..। मजेदार बात ये है कि पुराने साहब के भी यही इनपुट्स थे। पर नए साहब को अपने दिमाग पर बहुत भरोसा रहता है कि मैं वो समझ लूंगा जो पुराना वाला नहीं समझ पाया होगा। हो भी क्यों नहीं, क्योंकि कहावत भी है कि दिमाग अपना, पैसा दूसरे का। बच्चा अपना और बीवी दूसरे की। सदा बेहतर लगते हैं। खैर, धीरे धीरे फीडबैक चुगली में कब बदल जाता है पता भी नहीं चलता। कालांतर में कोई पैंसठिया (चापलूस), कोई नया मातहत या पत्रकार भी इस चुगली कॉकस में शामिल हो जाता है। जिला हो या कोई ऑफिस ..अधिकारी बदलते हैं पर चुगली कॉकस वही रहता है। और जिला/विभाग के सारे समझदार अफसर इस चुगली कॉकस को सेट करके अपनी दुकान हर सरकार में आसानी से चलाते रहते हैं। शेष अगले अंक में। तब तक पेश है ‘द इनसाइडर्स’ को चुगलियों से मिली नई कथाएं। पढ़िए और जोर से ठहाका लगाइए…

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  1. एसीएस मैडम की सीआरलीला

कभी रुक्मिणी बनने की चाह, कभी मीरा की पीर — मैडम की दुनिया बड़ी कथा-संवेदनशील है। विभाग में पदस्थ एक दबंग आईपीएस को उन्होंने यूँ टारगेट किया जैसे द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा माँगा था। फरमान जारी कर दिया — “मैं ही लिखूंगी इसकी सीआर!” अरे मियां, ये तो जैसे कोई कह दे कि यमराज अब विवाह पंजीकरण भी करेंगे। मातहतों ने बहुत समझाया — “मैडम, यह परंपरा नहीं है।” लेकिन जब राधा रुष्ट हो तो किसकी चले? सीआर की फ़ाइल स्टाफ के पास गई। जवाब आया — “आपको अधिकार नहीं है।” सीधा जवाब सुनकर मैडम का चेहरा नींबू की तरह खट्टा हो गया। लेकिन अपनी खीज कहां निकालें? सीधा गुस्सा फूटा—बेचारे पीए पर। मैडम ने उसकी ही सीआर बिगाड़ दी। बेचारा पीए अब उन्नाव की पनौती की तरह सीआर सुधरवाने के लिए ‘दिव्य कर्तव्यों’ की खोज में है। अब बेचारा पीए रोज़ सोचे—क्या करूं? अगर मैडम के ‘दीगर काम’ सिस्टम में दर्ज करूंगा, तो खुद मुसीबत में फंस जाऊंगा। और बिना उनके, सीआर सुधरेगी नहीं।

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  1. बड़े साहब के कॉन्फिडेंस का ‘टच’ लुढ़का, तीसरी मंज़िल से गंगा प्रवाह

दिल्ली एक्सपोजर से लौटे बड़े साहब पहले तो ऐसे बौराए जैसे नंदगांव लौटे कृष्ण। हर चर्चा में “दिल्ली में तो…” की तान छेड़ी जाती। लेकिन अब डॉक्टर साहब की चुगली के फेर में अपना कॉन्फिडेंस ऐसा लूज किया कि बात-बात पर कहते हैं — “विपश्यना वाले साहब को दिखा लो।” लगता है गीता का श्लोक भूल गए — “कर्मण्येवाधिकारस्ते” — अब उनका अधिकार दूसरों की राय तक सीमित हो गया है। सचिवालय के कई प्रमुख सचिव अब कह रहे हैं — “क्या हम मृगतृष्णा में पड़ गए हैं?” वहीं विपश्यना वाले साहब ऐसे लौटे हैं जैसे वानर दल का हनुमान — मस्त, प्रशंसा से भरे, और दरबार में विशेष स्थान के अधिकारी।
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  1. दरवाज़ा खुला रहना चाहिए

एक प्रमुख सचिव जी को अब समझ आया है कि माया-मोह, महिला और मीडिया से ज़्यादा ख़तरनाक कोई नहीं। लिहाजा, उन्होंने कक्ष में नया फरमान लागू किया — “जब भी कोई महिला मिले, दरवाज़ा खुला रखा जाए।” अब यह ‘द्वार नीति’ है या ‘द्रौपदी रक्षा नीति’? या फिर स्व रक्षा नीति! वैसे, सही भी है। आरोपों की आंच कब किसका पंखा जला दे। सरकारें आती-जाती हैं, लेकिन ‘मीटू’ के दस्तावेज़ की एक कॉपी तो हमेशा फाइल में रखी रहती है। इसलिए द्वार नीति का यह कदम समझदारी है, सियासी है और सतर्कता का प्रमाण भी।

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  1. मंत्री जी का नंबर — अब जनता के लिए ‘बाढ़ हेल्पलाइन’

राजधानी से सटे ज़िले के हमारे ‘लोकप्रिय’ मंत्री जी ने जनता से पिंड छुड़ाने का नया तरीका निकाला। व्हाट्सएप पर संदेश भेजो तो जवाब आता है — “यह नंबर बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र की आपातकालीन सेवा के लिए आरक्षित है।“ वैसे, हकीकत यह है कि मंत्री जी के क्षेत्र में बारिश थमी-थमी से है। हालांकि, जनता समझ गई — “यह नंबर अब हेल्पलाइन नहीं, ‘मंत्री लेस’ है और मंत्री जी—बिलकुल रिलैक्स। यह है डिजिटल लोकतंत्र का असली चेहरा।

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  1. एमडी साहब के नाक के नीचे लाइन लॉस 

बिजली विभाग की एक कंपनी के एमडी साहब के बारे में प्रचलित हैं कि वे बेहद ईमानदार हैं। ठेकेदार और कर्मचारी भी अपने-अपने  अंदाज में पुष्टि करते हैं। लेकिन हाल ही में कंपनी में बड़े पैमाने पर ट्रांसफर हुए। एमडी साहब ने ऑउटसोर्स वालों के ट्रांसफर के भी आदेश जारी किए। जैसा कि सरकारी सिस्टम में सब जानते ही हैं कि ट्रांसफर का असली खेल क्या होता है? तो सबने अपनी-अपनी व्यवस्था कर ली। कुछ अफसरों ने ज्यादा ही मलाई चाटने के फेर में कम्प्यूटर ऑपरेटर तक को नहीं छोड़ा। उनसे भी 50 हजार रुपए वसूल लिए। अब बदनामी होगी तो साहब तक आंच तो आएगी। लिहाजा, बेचारे कम्प्यूटर ऑपरेटर जैसे छोटे पद वाले भी कहने लगे कि एमडी साहब तक पैसा पहुंच रहा है। हम तो इतना ही कहेंगे कि काजल की कोठरी में दाग लगना तय है। इससे बचने के लिए सत्य का मजबूत लबादा ओढ़ कर ही जाया करें। 

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  1. राहु का राशि परिवर्तन

पानी वाले विभाग में मई माह में संविदाधारी की विदाई क्या हुई, हजारों करोड़ के घपले घोटाले की शिकायतों की बाढ़ आ गई। नवागन्तुक को सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने लगे। पर साहब कुछ लोग बीरबल की तरह चतुर होते हैं – आपदा में अवसर ढूंढ ही लेते हैं। ऐसे ही हैं कुछ पानी वाले विभाग के राहू साहब। ये कभी फील्ड में सफल नहीं रहे पर बड़े मिशन की बैलगाड़ी के श्वान बन कर, बिना दस्तखत फंसाएं करोड़ों कमाए। जब उन्होंने देखा कि समय बदल गया है तो उन्होंने भी राशि(स्थान) परिवर्तन की ठान ली। अपने एक पूर्व के मातहत की शिकायत ले कर शासन में बड़े साहब के पास पहुंच गए  और निवेदन कर दिया कि सर, बहुत निगेटिविटी हो गई है। मैं काम नहीं कर पा रहा हूँ। आप मुझे कलेक्ट्रेट के पास वाले जांच संगठन में डेपुटेशन पर भेज दें। वहां बैठ के सबको बचा भी लूंगा। खैर, राहु साहब ने बिना दस्तखत फंसाएं पहले मिशन के शादी में ब्राम्हण भोज किया। अब राशि परिवर्तन करके जांचों से उसी मिशन के मृत्यु भोज करने की जुगाड़ में हैं।

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  1. वन बल प्रमुख की कुर्सी का वानप्रस्थ

वन विभाग के वर्तमान मुखिया जुलाई में सेवानिवृत्त हो रहे हैं। लेकिन उनके उत्तराधिकारी की कुर्सी को लेकर जोड़तोड़ अभी से शुरू हो गई है। दो IFS अफसरों ने तो लॉबिंग शुरू भी कर दी है—कुर्सी चाहिए, चाहे जंगल में मंगल हो या टेंशन! सूत्रों का कहना है कि अगले प्रमुख का चयन, जंगल से कम और जुगाड़गिरी से ज़्यादा तय होगा।

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  1. शहरों की बर्बादी का सौंदर्य दर्शन: “प्रशासनिक पिकनिक विद पाताल लोक”

शहर बेहाल हैं—बारिश में सड़कों पर दरारें, ट्रैफिक का सत्यानाश, लेकिन शहर प्रमुख टूर पर हैं। वजह पूछी तो जवाब आया—”हम मैनेजमेंट की ट्रेनिंग के लिए आदिवासी अंचल गए हैं।” आदिवासी इलाके में कौन सा शहरी प्रबंधन सिखा जा रहा है? जवाब किसी के पास नहीं। लेकिन खाना अच्छा है, होटल बढ़िया है और ट्रेनिंग वाले दिन बारिश ने मौसम खुशनुमा बना दिया। सेल्फी-वेल्फी भी खूब हुई। यानी सफर सफल रहा। कहते हैं — “जहां ज्ञान ना पहुँचे, वहां नेता और अफसर पहुंच जाते हैं!”

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  1. हम्माल सेवा की प्रतीक्षा या सब्र का इम्तिहान

राज्य प्रशासनिक सेवा, जिसकी खासियतों को वर्णन हमने अपनी विशेष श्रृंखला राज्य हम्माल सेवा में किया था, वह भी सूची न आने से हलाकान है। मुख्यमंत्री के विदेश दौरे से जाने से पहले सूची जरूर बनी पर जारी न हो सकी। फिर इस बड़ी लिस्ट को छोटा भी किया गया, लेकिन बात न बन सकी। अब सीएम के दौरे से लौटने का इंतजार किया जा रहा है। गौरतलब है कि पिछले एक साल से संयुक्त कलेक्टर से अपर कलेक्टर पर प्रमोशन पाने वाले अभी भी पुरानी पदस्थापना में काम कर रहे हैं। यह स्थिति तब है जबकि कई जिलों में अपर कलेक्टर के पद खाली है। ऐसी ही स्थिति अन्य संस्थानों में है, जहां राज्य हम्माल सेवा वाले पद खाली हैं या उपयुक्त व्यक्ति की पदस्थापना नहीं है।

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  1. पर्यावरणीय संस्था में फैला प्रदूषण का कैंसर

जिस संस्था को पर्यावरण बचाना था, वहीं अब भ्रष्टाचार रूपी प्रदूषण का कैंसर फैल चुका है। इतना ही नहीं, कैंसर लाइलाज भी हो चुका है। खैर, बात सबको पता है, बस नाम नहीं लिए जा सकते। लेकिन प्रतिक्रियाएं ऐसी हैं कि पंचतंत्र के शेर और सियार भी शर्मा जाएं: जैसे,

  1. पूरी दाल ही काली है— लड़ाई दरअसल एनओसी जारी करने के एवज में मिलने वाले हिस्से की है, न कि सिद्धांतों की।
  2. आर-आर का जलवा नहीं घटना चाहिए अगर इस मामले में कोई प्रमोटी से गलती होती तो कब का नप गया होता — पर जब ‘RR’ है, तो पूरा सिस्टम “सियासी सियार मोर्चा” बन जाता है। इसलिए अध्यक्ष महोदय जो कि खुद कभी प्रमोटी थे, उनकी तमाम कोशिशें नेस्तेनाबूत हो रही हैं।
  3. अध्यक्ष की नियुक्ति कैसे हुई? — जैसे विभीषण को राज्य मिला था, वैसे ही कुछ ‘राजनीतिक हनुमानों’ की कृपा से यह पद मिला। यह कौन थे, इनकी खोजबीन जारी है।
  4. कौन-सी फाइल पास हुई, क्यों हुई? — एनओसी यानी “Note Of Commission” का खेल बड़ा निराला है। हर मंजूरी में हरियाली नहीं, हरि नाम बसा है। वैसे, किसे एनओसी मिली और किसे नहीं, यह जांच का विषय है।
  5. राज्य बोले — केंद्र देखे, केंद्र बोले — राज्य देखे — और संस्था व अफसर बोले, “हम तो आदेशपालक हैं माई बाप!”

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