द इनसाइडर्स स्पेशल: “मछली जल की रानी है…” और मछलीघर उसकी पुरानी कहानी है! क्या नए मछलीघर में फिर जीवंत होगा बचपन!

भोपाल में नए मछलीघर के निर्माण की शुरूआत हो गई है, लेकिन भोपालियों की यादों में पुराने मछलीघर की महक अब भी ताजा है।

“मछली जल की रानी है,
जीवन उसका पानी है…
हाथ लगाओ डर जाएगी,
बाहर निकालो मर जाएगी…”

अरे मियाँ! यह तो कोई मामूली कविता नहीं थी — ये भोपाल के हर बच्चे की रूह में दर्ज वो लोरी थी, जो सर्द रातों में तकिये के नीचे दुबकी मिलती, और सपनों के दरवाज़े खोल देती थी। यह वो जादुई पासवर्ड थी, जो सीधे ले जाती थी — मछलीघर!

और मछलीघर?

अरे साहब, वो कोई इमारत नहीं थी… वो तो भोपाल के रविवारों का मेले वाला दिल था। वो जहां मां की गोद और अब्बा की ऊंगली पकड़कर बच्चे कहते — “देखो, ये है जल की रानी!”

झील के किनारे मिंटो हॉल की ओट में, एक मछली के आकार की इमारत — बाहर से पहली बार देखने में रहस्यमयी लगती थी, पर कुछ देर बाद दोस्ती हो जाती थी। अंदर घुसते ही जैसे नीली दीवारें बच्चे को गोद में ले लेतीं। कांच के कई टैंक — जिसमें मछलियाँ तैरती नहीं थीं, बच्चों की आँखों में घर कर जाती थीं।

“अरे मियाँ, इतवार है… मछलीघर चलो न!” — ये आवाज़ पुराने भोपाल की गलियों में ऐसे गूंजती थी जैसे घोड़ानक्कास चौराहे पर कोई नौजवान साज छेड़ दे।

नए शहर के बाबूओ की बस्ती तुलसी नगर में बच्चे चिल्लाते — “पापा! मछलीघर चलो ना!” और उधर बाबूजी स्कूटर में पेट्रोल भरवाकर तैयार। अम्मा टिफिन में पूरियाँ, रसेदार आलू और मिर्ची का अचार सजातीं। बच्चा पीछे बैठता, आंखों में गोल्डफिश तैरती हुई, जैसे कोई शहज़ादा अपनी रानी से मिलने निकल पड़ा हो।

सीढ़ियाँ चढ़ते ही भीतर से आती एक्वेरियम की सौंधी-सी गंध, थोड़ी नमी और हल्की-सी ठंडक — जैसे बचपन की सांसें वापस आ रही हों। बच्चा दौड़कर सबसे बड़े टैंक के सामने खड़ा हो जाता, जहाँ रंग-बिरंगी मछलियाँ नाचतीं — मानो कोई बायस्कोप चल रहा हो।

“अम्मी, ये मछली सोती कहां है?”

“वो सोती नहीं बेटा, तेरे ख्वाबों में तैरती है…” — अब्बा मुस्कुराते हुए जवाब देते।

एक बार की बात है मियाँ — रामस्वरूप चाचा, जो मछलीघर के बाहर चाय की केतली के बादशाह थे, ने एक किस्सा सुनाया। बोले — “70 के दशक में एक बच्चा रोज़ रोटी का टुकड़ा लेकर आता था, कहता — मछली भूखी होगी!” एक दिन गार्ड ने रोका, तो वो बच्चा रोने लगा। तब से गार्ड भी मुस्कुरा देता था। यही था भोपाल — जहां इंसानियत, मछलियों तक तैर जाती थी।

बाहर निकलते ही झील किनारे बेंच पर टिफिन खुलता — पूरियों की भाप, आलू की मिठास और अचार की चटपटाहट में पूरा भोपाल घुल जाता। पास बैठा कोई चचा चुटकी लेता — “जल्दी खा लेओ मियाँ, नहीं तो मछली भी आ जाएगी हिस्सा मांगने!” और फिर कोई फोटोवाला भैया कैमरा लेकर हाजिर — “बोर्ड के नीचे खड़े हो जाओ, हां… मुस्कराओ… क्लिक!”

वो तस्वीर एल्बम में नहीं, यादों की आत्मा में बस जाती।

फिर कॉलेज की उम्र आई — मछलीघर अब सिर्फ बच्चों का ठिकाना नहीं रहा। वो झील किनारे बैठकर गपशप का अड्डा बन गया। वहां मोहब्बतें भी तैरने लगीं — और सपने भी।

लेकिन एक दिन खबर आई — “मछलीघर हटेगा, कन्वेंशन सेंटर बनेगा।”

अरे मियाँ! ये कोई खबर थी? नहीं… ये जैसे किसी ने बचपन के एक्वेरियम से पानी निचोड़ दिया हो। मछलियाँ तो नहीं मरीं, लेकिन इतवारों की हँसी, मां की गोद, अब्बा की मुस्कान — सब ढह गए। मलबे में सिर्फ दीवारें नहीं दबीं… बचपन की सांसें भी दबीं।

मगर लंबे इंतजार के बाद बीते हफ्ते — एक नई खबर आई।

मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने नए मछलीघर का भूमि पूजन किया। कहा — “नई तकनीक होगी, इंटरैक्टिव टैंक होंगे, थ्रीडी मॉडल होंगे…”

बहुत बढ़िया जनाब!

टैंक बनाइए, मछलियाँ लाइए, तकनीक सजाइए — पर हमारी यादों के बुलबुले भी साथ लाइए। एक कोना दीजिए, जहां कोई बच्चा फिर से पूछे — “अम्मी, क्या ये मछली मुझसे दोस्ती करेगी?” एक बेंच फिर लगाइए, जहां टिफिन खुले, और कोई बच्चा आचार की खुशबू में कहे — “अब्बू, आज की सैर पूरी हो गई!”

मछली जल की रानी थी, है और रहेगी। मगर मछलीघर?

वो हमारे बीते कल का महल था। और अब जब वह फिर बनने जा रहा है — तो दीवारें ऐसी बनाइए जो सिर्फ सीमेंट-गिट्‌टी से न बनें, बल्कि भोपाल की पुरानी मोहब्बतों से गूंथी जाएं। ताकि अगली पीढ़ी जब वहां जाए, तो एक बच्चा अपनी दादी की उंगली थामे पूछे —

“दादी, यही है वो जादुई जगह, जहां आप पापा को लाया करती थीं?”

और दादी की आंखों में झील उतर आए…
क्योंकि उन्होंने फिर से देख लिया —
भोपाल का बचपन, मछलीघर में तैरता हुआ।

( कुलदीप सिंगोरिया, khashkhabar.com  के संचालक व द इनसाइडर्स के संपादक)

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