द इनसाइडर्स: रिटायर इंजीनियर 1000 करोड़ की घूस का मुख्य सूत्रधार, मंत्री पुत्र की वजह से हुआ वर्दी घोटाला, सीआर वाली दीवाली से चमका मंत्रालय

द इनसाइडर्स में इस बार पढ़ें राज्य प्रशासनिक सेवा पर केंद्रित श्रृंखला की आखिरी कड़ी…

कुलदीप सिंगोरिया@9926510865
भोपाल | राज्य प्रशासनिक सेवा (SAS) या क्रिटिक की नजर में  “राज्य प्रशासनिक-हम्माल सेवा(SAHS)” की समापन कड़ी…इस सेवा के ज्यादातर लोगों वानप्रस्थ काल अर्थात सेवा काल के अंतिम दिन..वल्लभ भवन नामक वन के माचिस की डिब्बीनुमा दड़बों में गुजरता है। जहां इनकी शासकीय सेवा की अंतिम सांसे एक “अफसर नुमा चपरासी” (घण्टी पर पदस्थ सीनियर क्लास 4 )और एक “चपरासीनुमा अफसर”…(बार बार pbx से बुलाने वाले RR अफसर) के बीच गुजरती है। आप सोच रहे होंगे कि चपरासी नुमा अफसर क्यों कहा…क्योंकि इस अवस्था में ये वरिष्ठ अफसर अपने पैंसठिये के गुलाम हो चुके होते हैं। उनका हर जायज/नाजायज़ हुक्म मानते हैं। क्यों न माने, उनके कई सौ खोखे उस पैंसठिये (चापलूस और कालेधन का खपतधारी) के नियंत्रण में जो होते हैं। SAHS के कन्वर्टेड IAS सिर्फ चाकरी ही करते रह जाते हैं। और सारे रुपये RR ले जाते हैं व सिक्के इन हम्मालों के कटोरे में डाल देते हैं। हमने इस सीरीज की शुरुआत में लिखा था SAHS …सिक्कों की खनक भरी दर्द भरी दास्तान..” ।दर्द ये है कि RR की रुपयों की गठरी में आवाज नहीं होती और SAHS के कटोरे में गिरे सिक्के की आवाज हर पत्रकार और जांच एजेंसी को दूर से ही सुनाई दे जाती है। इसी वजह से सारे वॉच डॉग उनकी ही तरफ दौड़ पड़ते हैं। वहीं, RR बच के निकल जाते हैं रुपयों की गठरी लिए किसी पैंसठिये के पास जमा करने। ये SAHS जानते सब हैं, पर कर कुछ नहीं पाते। बस कुछ जुमलों से मन बहलाते रहते हैं। जुमलों में दोनों चपरासी नुमा अफसर और अफसरनुमा चपरासी एक जैसे होते हैं ..। उदाहरण पहला, दोनों काम नहीं करते…या यूं कहें बिना पैसे के काम नहीं करते। दूसरा, दोनों दिन भर पैसे के इन्वेस्टमेंट, समाज और राजनीति की बात करते हैं। तीसरा, सेवानिवृत्ति के बाद दोनों पुनर्नियोजन की जुगाड़ में रहते हैं। चौथा, खुद एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर में रहते हैं और दूसरों की खबर फैलाते रहते हैं। आदि ..आदि..इस तरह मन हल्का करते रहते हैं। SAHS के सुपर एक्सपोजर वाले यानी हमारे एक्लव्य कुमार खुद को SUPER IAS समझने लगते हैं और ISO19001 एजेंसी की तरह बातचीत में हर नए पुराने अधिकारी का सर्टिफिकेशन जारी करते रहते हैं, भले ही उनकी कोई सुने न सुने। कुछ मध्यम औऱ कनिष्ठ कुमार बच्चों के साथ सेटलमेंट की प्लानिंग में रहते हैं तो कुछ राजनीति में किस्मत चमकाने की कोशिश में। कुछ कनिष्ठ कुमार आयुक्त के पद पर पहुंच जाते है लेकिन उनका करियर चुगली से शुरू होकर CR लिखने वाली अर्थव्यवस्था पर खत्म हो जाता। एक मामले में RR और SAHS की किस्मत एक जैसी होती है- उनका बुढ़ापा अपने पैंसठिये से वसूली करने के प्रयासों में ही गुज़रता है। और अंत में एक सेवानिवृत्त SAHS अधिकारी की उपमा “RR हाथी का बच्चा होता है जो बड़ा होकर राजा की सवारी बनता है ..और SAS बछड़ा होता हैं, जिनमें से एक आध बड़ा होकर सांड बनता है और शेष की किस्मत में प्रशासनिक खेत के हल का बैल बनना लिखा होता है…”  इसी के साथ इस श्रृंखला का समापन करते हैं और शुरू करते हैं रसूखदारों के गुदगुदाते किस्सों की पोटली लिए आज का ‘द इनसाइडर्स…’.

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मंत्री ने पाई अहसानफरामोशी की सजा…

“सरकारों में काम नहीं होता, अहसान उतारे जाते हैं… और जब अहसान भी न उतरे, तो फिर होते हैं ‘खुलासे’!” — ये डायलॉग किसी फिल्म का नहीं, बल्कि एक हजार करोड़ रुपए की घूसखोरी का आरोप झेल रही है मंत्री महोदया की रियल-लाइफ पटकथा का सार है। घूसखोरी में कितनी संपत्ति बटोरी, यह मंत्री ही जानें। लेकिन लोग खोज रहे थे कि मामला क्या है — तो लीजिए, द इनसाइडर्स आपको चटपट जवाब दे रहा है। दरअसल, “एक करीबी इंजीनियर साहब” का दिल टूट गया था!  और यह कहानी छिंदवाड़ा जिले की विधानसभा पर हुए उपचुनाव से शुरू होती है। मंत्रीजी प्रभारी बनीं। इंजीनियर साहब ने शाही खर्च उठाया — बिना रसीद, बिना बिल। बदले में वादा मिला: “जांच खत्म होगी, रिटायरमेंट के बाद पुनर्वास भी मिलेगा।” लेकिन वादा वही, जो नेताजी चुनाव से पहले करते हैं। न जांच खत्म हुई, न पुनर्वास की फाइल खुली। यही नहीं, मंत्री के इलाके में पदस्थ इंजीनियर ने भी गुस्ताखी कर डाली। और फिर क्या? इंजीनियर साहब ने अपना जमा-जमाया नुस्खा एप्लाई किया और मंत्री व उनके जिले के इंजीनियर के बारे में एक पूर्व विधायक के कान फूंक दिए! पूर्व विधायक जी, नॉनसेंस वैल्यू के लिए कुख्यात हैं तो उन्होंने मौके को फौरन लपकते हुए सीधे प्रधानमंत्री से शिकायत कर दी। फिर जो रायता फैला है, वह आप सबके सामने है ही। ये इंजीनियर भाऊ के करीबी माने जाते हैं, और उनके इलाके में तैनात थे। ऊपर से, पूर्व सीएम की ससुराल में भी रिश्ते गहरे कर रखे थे! उनका जलवा ऐसा कि रिटायरमेंट के बाद भी पांच जिलों से एक फीसदी कमीशन वसूल रहे हैं। एक महानगर में होटल, एक जिले में धान मिल, और विदर्भ की राजधानी में अस्पताल। माने “दबंग” स्टाइल में डॉन! दूसरों की शिकायतें करवाने का शौक ऐसा कि महाकौशल में लोग उनसे कांपते हैं। लोकोक्ति “जाको प्रभु उठाए, उसको दुनिया न लखाए” फिट बैठती है। अगर वहाँ हैं तो “सावधान रहियो, वरना पंगा पक्का!”

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ओएसडी का “स्व-सम्मान” कार्यक्रम

अब आते हैं एक अन्य मंत्री महोदय के ओएसडी साहब पर — जिनका नाम आए और विवाद ना हो, ऐसा पिछले कई वर्षों में नहीं हुआ। कभी प्रेम-प्रसंग, कभी ब्लैकमेलिंग, कभी ससुराल में तांडव — “ये रिश्ता क्या कहलाता है” की पूरी स्क्रिप्ट है इन पर। हालिया एपिसोड में ओएसडी साहब ने खुद को सम्मानित कराने का निर्णय लिया। अफसरों से कह डाला — “कुछ कर लो, मुझे भी शिखर सम्मान दिलवाओ।” अब अफसर क्या करते? “जो हुक्म मेरे आका!” कहकर कागज़-पेन समेटे और कर डाला नामांकन। अब विभाग खुद अपने अधिकारी को सम्मानित कर रहा है। वाह रे सरकारी सम्मान — “घर की मुर्गी, चूं भी करे तो सोना!”

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वर्दी घोटाला के सूत्रधार

द इनसाइडर्स ने पिछले साल खुलासा किया था कि गांव की निचली पोस्ट पर तैनात, मुखबिरी में माहिर कर्मचारियों की वर्दी में घोटाले की कहानी लिखी जा रही है। और, इस ड्रामे के सूत्रधार खुद मंत्री पुत्र थे—वाह, “पापा का परफॉर्मेंस अवॉर्ड!” अफसरों ने नियम बदले और वर्दी की राशि कर्मचारियों को देने की बजाय टेंडर से खरीद का रास्ता निकाला। लेकिन इस फेर में एक गलती कर बैठे। उन्होंने उस नियम को बदल दिया, जिसे बड़े साहब ने 6 साल पहले की पोस्टिंग में बनाया था। जब बड़के साहब को पता चला, तो विभाग प्रमुख की ऐसी क्लास ली कि “शोले” का बसंती भी शरमा जाए! पर मंत्री की वजह से जांच तक नहीं हुई—साफ है, “बाप बेटा मिले तो सब ठीक!”

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चश्मोचिराग पर आई आंच

पूर्व बड़के साहब के चश्मोचिराग पर मुसीबतें टपकती रहती हैं—अब विभाग प्रमुख की नजरें इन पर टेढ़ी हो गईं। एक दिन तो खबर ले डाली, “इस गलतफहमी में मत रहना कि तुम्हारे पिता बड़के साहब थे। अब वे नेपथ्य में हैं, तो नौकरी ढंग से करो, वरना नौकरशाही के समुद्र में गोते लगाओगे!” लोकोक्ति “बेटे का सिर, बाप का धन” यहाँ उलट गई। चश्मोचिराग साहब, जो एक जिले में चार साल तक अडिग थे और विधायकों की चिट्ठियों को रद्दी समझते थे, अब “चुपके-चुपके” टेबल पर फाइलें पलटते हैं।

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मामा यह क्या किया

मामा का जलवा तो पिछले अंक में बयां हुआ था—आदिवासियों के घर उजाड़े जाने पर दिल पसीज गया और डीएफओ साहब नाप दिए गए। पर ट्विस्ट है कि असली खिलाड़ी सीसीएफ थे, और डीएफओ तो “नादान परिंदे” बन गए। जल्दबाजी और गलत इनपुट ने इन्हें लपेटे में ला दिया—लोकोक्ति “अंधे के हाथ बटेर” यहाँ सटीक बैठती है। गलती तो नहीं सुधरेगी, पर डीएफओ को देर-सबेर न्याय मिलने की उम्मीद—शायद “लागा चुनरी में दाग” वाले सीन की तरह!

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ऐसा भी होता है

धन प्रबंधन वाली संस्था में जमे-जमाए खंभों को उखाड़ फेंका गया। खंभों ने जोर-आजमाइश की, पर मुखिया ने उन्हें छन्ना लगाकर छानकर बाहर का रास्ता दिखा दिया। फिर खंभों ने वल्लभ भवन की ओर नजरें उठाईं, लेकिन विपश्यना वाले साहब के गुस्से के खौफ से सीढ़ी नहीं चढ़ पाए। आखिरकार मंत्रीजी के पास गए तो उन्होंने भी हाथ जोड़ लिए — “मुझे माफ करो, भाई!” अब कर्मचारी कह रहे हैं, “फिल्मों में देखा था कि अफसर अपनी पर आए तो तमाशा कर देता है, पर हकीकत भी देख ली!”

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सीआर वाली दीवाली

तबादला सीजन में मंत्रियों के स्टाफ की दीवाली मनी, अब विभागाध्यक्षों के स्टेनो की बारी—सीआर यानी गोपनीय प्रतिवेदन का कमाल! दरअसल, प्रमोशन पॉलिसी आ गई है और सभी को सीआर (गोपनीय प्रतिवेदन) भरवाना है — तो सब दौड़ रहे हैं, साहबों के पीछे। लेकिन साहब तो टावर पर बैठे हैं, सीधे मिलेंगे नहीं — तो रास्ता सिर्फ एक: स्टेनो जी। यह वजह है कि स्टेनो साहब इन दिनों खुद को “रजनीकांत समझने लगे हैं” — एक इशारे पर फाइलें, दूसरे पर चाय-पानी, तीसरे पर उपहार। हालत यह है कि उनकी पतलून की जेबें वजन के कारण आंदोलन पर जाने को तैयार हैं!

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चलते- चलते: यह कोई स्क्रिप्ट नहीं, बल्कि हमारे नौकरशाही सिनेमा की असली कहानी है। यहाँ हर किरदार का अपना एजेंडा है, अपनी चमक है और अपनी चाल। और जैसे-जैसे पर्दा उठता है, एक ही डायलॉग याद आता है —
“पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त!

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