The Insiders: निधि पर मेहरबान हुए सीनियर आईएएस, सांसद जी की टंगड़ी समझ नहीं पाए एमडी, बड़े साहब को करना पड़ा निकम्मे आईएएस का काम
द इनसाइडर्स में इस बार पढ़िए सरकारी गलियारों की खबरों का रोचक अंदाज में वर्णन
कुलदीप सिंगोरिया @9926510865
भोपाल | “प्रवासी पक्षी और ख़ानाबदोशी… भाग 7” अब तक हमने उत्तर भारत, गुजरात–महाराष्ट्र और द्रविड़—यानी दक्षिण भारत—से उड़कर आने वाली अफसरों की खेप यानी प्रवासी पक्षियों की मध्यप्रदेश में आकर ख़ानाबदोशी करने की तमाम कारणों की परतें खोलीं। अब रुख करते हैं पूरब की ओर—जहाँ से आती हैं हवा में घुली माटी की सुगंध, मछ-भात की महक, उड़ीसा के प्राचीन मंदिरों की अद्भुत शिल्पकला, और पूर्वोत्तर की पहाड़ियों से रिसती धुंध, बांस और लोकगीतों की आत्मा। यानी बंगाल, ओडिशा और वे प्रसिद्ध सेवन सिस्टर स्टेट्स। बिना किसी औपचारिक भूमिका के, सीधे मुद्दे पर आते हैं।
इन प्रदेशों के प्रवासी पक्षी उत्तर या दक्षिण भारतीय समकक्षों के बरक्स मध्यप्रदेश के गगन में प्रायः इक्का-दुक्का ही दिखाई देते हैं—वह भी बिना शोर, बिना पदचाप, जैसे किसी बाँसुरी की सुस्त धुन में घुल जाते हों। संख्या बल कम, इसीलिए कोई लॉबिंग का कोलाहल नहीं। बस आते हैं, अपनी फाइलों की चिनगारियाँ बिखेरते हैं, और मौका मिलते ही फिर दिल्ली की राह पकड़ लेते हैं। स्थायी दाना चुगने का कोई मोह नहीं—इसलिए धन संबंधी “उपक्रमों” में भी कोई विशेष परिश्रम नहीं दिखता। जो आया, खाया और लौट गया—कुछ वैसा ही आचरण। यह प्रवासी पक्षी किसी “पैंसठिए”—यानी चापलूस—की थाली पर आश्रित नहीं रहते। महफ़िलें होती हैं, पर घर पर—चयनित, भरोसेमंद मित्रों के बीच, बिना किसी तामझाम के। इनकी कमाई में न कोई अतिशय वृद्धि दिखती है, न ही “हवाला” जैसा कोई शब्द इनके आसपास भटकता है। इनके निवेश भी सीमित—दिल्ली-एनसीआर, मुंबई या अपने गृह राज्य तक। और फिर सेवानिवृत्ति आते ही—न कोई राजसी विदाई, न कोई भावुक ठहराव—सीधे दिल्ली या अपने-अपने राज्य की पनाह। मानो मध्यप्रदेश में बीता समय किसी अस्थायी प्रवासगृह जैसा ही रहा हो—आया, रहा, काम किया, और उड़ गया। अब हम नए साल में मिलेंगे, देश की सबसे बड़ी सूचना के साथ। तब तक लिए पढ़िए सरकारी गलियारों की चटपटी खबरों के साथ इस हफ्ते द इनसाइडर्स…
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पहले नंबर की बजाय नवें नंबर पर रहा प्रदेश
इस समय प्रशासनिक क्षेत्र का सबसे बड़ा इवेंट दिल्ली में चल रहा है— प्रधानमंत्री के साथ राज्यों के बड़े साहबों का सम्मेलन। हमारे बड़े साहब और हम—दोनों की ख्वाहिश थी कि प्रदेश डी-रेगुलेशन की दौड़ में नंबर वन आए। लेकिन कहते हैं न, एक की ढील पूरे तंत्र को सुस्त कर देती है—यहाँ भी वही हुआ। श्रम से जुड़े विभाग के एक साहब के आलसीपन सब बर्बाद कर दिया। उनका आलस ऐसा कि फाइल आगे बढ़े तो भी कुर्सी पर बैठे-बैठे। ढिठाई ऐसी कि बार-बार कहने पर भी डी-रेगुलेशन से जुड़े ज़रूरी संशोधनों पर आना-कानी चलती रही। जब काम करने का वक्त आया, तो साहब ने रण छोड़ दास की परंपरा निभाई—सीधे छुट्टी पर निकल लिए। बड़े साहब का पारा स्वाभाविक तौर पर सातवें आसमान पर पहुँचा। आखिरकार, सम्मेलन सिर पर था, रैंकिंग की दौड़ चल रही थी और दिल्ली में यह बताने का वक्त आ गया था कि प्रदेश सुधारों के मामले में कहाँ खड़ा है। मजबूरी में बड़े साहब को खुद ही कमान संभालनी पड़ी। लेकिन देरी ने सारा खेल बिगाड़ दिया। जो प्रदेश पहले नंबर की दावेदारी कर रहा था, उसे आखिरकार नवें नंबर पर संतोष करना पड़ा।
हाथों में लाल रंग रिश्वत निधि का नहीं, मेहंदी का था
पानी से जुड़े एक विभाग में अधेड़ ख्वाहिशों को महकाने वाली सौंदर्य पर लोकायुक्त की टेढ़ी नजर पड़ गई थी। लोकायुक्त पुलिस ने रिश्वत निधि (धन) को पकड़ने के लिए मोहतरमा के हाथ धुलवाए, तो लाल रंग ने सच उगलवा दिया। दबाव इतना था कि विभाग को मोहतरमा को सस्पेंड करना पड़ा। लेकिन अधेड़ इंजीनियरों की वजह से विभाग के प्रमुख साहब भी निधि पर इठलाए हुए थे—और साहब का इस तरह के मामलों में पुराना रिकॉर्ड भी रहा है। शायद यही वजह है कि साहब अब रिश्वत निधि पर अभियोजन की स्वीकृति डेढ़ साल से लटकाए बैठे हैं। अब तर्क दिया जा रहा है कि लाल रंग रिश्वत का नहीं था, बल्कि हाथों में मेहंदी लगी हुई थी। विभाग में चर्चा आम है—अगर निधि (धन) स्वयं अपने आलिंगन का न्यौता दे दे, तो मनुष्य-रूपी हरि इसे क्यों ठुकराएँ? हम तो साहब को मनुस्मृति का यह श्लोक याद दिलाना चाहते हैं— “अधर्मेणैधते तावद् ततो भद्राणि पश्यति।”
(अधर्म से मनुष्य पहले बढ़ता है, फिर उसी से उसका पतन होता है।)
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ईमानदारी के फेर में भूले में सांसद का प्रोटोकॉल
हमने आईएएस अफसरों पर आधारित योग: कर्मशु कौशलम् सीरीज़ में बताया था कि यह प्रजाति पाँच प्रकार की होती है—हाथ की पाँच उंगलियों की तरह। इन्हीं में से एक अंगूठा (बेहद ईमानदार) प्रकार वाले अफसर हाल ही में असहज स्थिति में फँसे। पानी वाले एक निगम की स्कीम का जायज़ा लेने दिल्ली से एक सचिव आए थे। साहब वरिष्ठता निभाने में उनके साथ लगे रहे और कार्यक्रम स्थल पर एक घंटा देरी से पहुँचे। उधर सांसद महोदय का पारा सातवें आसमान पर था। लेकिन नेता वही जो हर मौके को भुना ले। सांसद जी ने व्यंग्य कसते हुए अफसर के पैर छू लिए। अचानक हुए इस दृश्यक्रम से ईमानदार अफसर हक्के-बक्के रह गए। उन्हें समझ में ही नहीं आया कि सांसद जी ने नेतागिरी की रस्म निभाई है। उनके लिए प्रसिद्ध किताब 1984 के लेखक जॉर्ज ऑरवेल का एक कथन प्रस्तुत है – “All animals are equal, but some animals are more equal than others.”
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अवार्ड के लिए आईएएस ने किया फर्जी आँकड़ों का खेल
एक जिले में जल संचयन के कामों की वजह से देशभर में गूंज है। राष्ट्रपति द्वारा अवार्ड दिया गया। मगर जैसे ही सांसदों ने संसद में सवाल लगाए, अवार्ड के पीछे की मेहनत की परतें उधड़ने लगीं। दरअसल, एक आईएएस—जो पहले दूसरे जिले में पदस्थ थे—ने एक कंपनी पर लगे 51 करोड़ रुपए के जुर्माने को महज़ 4 हज़ार कर दिया था। इस ‘वीरता’ के बदले 10 करोड़ रुपए की कथित भेंट लेने का आरोप भी जुड़ा। नए जिले में इमेज सुधारने के लिए साहब ने जल संचयन में दिन-रात मेहनत की—जमीन पर नहीं, आँकड़ों की प्रयोगशाला में। अब जब आँकड़ों की कलई खुल रही है, तो फजीहत फिर शुरू हो गई है।
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आख़िर इज्जत हम्माल सेवा ने बचाई
आईएएस सर्विस मीट हमेशा की तरह ‘सब कुछ चंगा’ के नारे के साथ निपट गई। लेकिन असल सच्चाई यह है कि इज्जत इसलिए बची क्योंकि राज्य हम्माल सेवा से प्रमोट होकर आए अफसरों ने कुर्सियाँ भर दीं। सुल्तान के सामने खाली कुर्सी न दिखे, इसलिए पहले ही 100 सीटों वाला छोटा हॉल लिया गया। फिर भी सुल्तान के कार्यक्रम में सिर्फ़ 8-10 सीधी भर्ती आरआर आईएएस दिखे—वह भी आयोजक होने के नाते। बाकी सीटों को हम्मालों ने भरा। उधर, रक्तशुद्धता के अहंकार में बैठे आरआर जिलों से तंज कसते रहे—हम्माल चाहे जितना मीट में आ जाए, वर्णसंकर मान्य नहीं।
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वेटरन आईएएस अफसरों का छलका दर्द
आईएएस सर्विस मीट में इस बार वेटरन अफसर बेहद नाराज़ दिखे। पहले तारीफों के पुल बाँधे गए, फिर व्हाट्सएप ग्रुप में उपेक्षा और व्यथा सार्वजनिक हो गई। एक रिटायर्ड आईएएस ने लिखा—या तो वरिष्ठ अधिकारियों और उनके परिवारों को शामिल न किया जाए, या फिर औपचारिक कार्यक्रमों में उन्हें सम्मान दिया जाए। संघ के ढांचे में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता। दूसरे रिटायर्ड अफसर ने लिखा—वरिष्ठ सेवारत अफसरों और भोपाल में रह रहे कई रिटायर्ड अधिकारियों की अनुपस्थिति ने कई सवाल खड़े किए हैं। दोनों रिटायर्ड आईएएस की इन आलोचनाओं ने प्रशासनिक हलकों में नई बहस जरूर छेड़ दी है। एडमंड बर्क की पंक्ति यहाँ बिल्कुल सटीक बैठती है— “A nation which forgets its past has no future.”
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सोशल मीडिया का ऐसा प्रेम की फेंस क्लब भी बन गया
एक आईएएस जो रील प्रेमी के नाम से ख्यात हैं, अब सोशल मीडिया की लत के आदी हो चुके हैं। एक पटवारी पर कार्रवाई के बाद जिले के 60-70 पटवारी उनसे मिलने आ गए। इस दौरान जो वीडियो बना, उसमें वह कहते नजर आ रहे हैं कि उन्होंने पटवारी पर कार्रवाई वाला वीडियो वायरल नहीं किया था। सच्चाई साहब जाने? पर इसके कुछ ही दिनों बाद उनके नाम वाला फेन्स क्लब बन गया। और अब इसमें जिल्लेइलाही की तमाम गतिविधियां पब्लिक के लिए परोसी जा रही है। हम नहीं जानते हैं कि वे सोशल मीडिया का इस्तेमाल लोकप्रियता बढ़ाने के लिए कर रहे हैं या वाकई में जनता से संवाद करने में। लेकिन इशारों में बता देते हैं कि काफी कुछ अंदरखाने की बातें आप तमाम कोशिशों के बाद भी नहीं छुपा पाएंगे। इनसाइडर्स आपकी एक-एक खबरें दे रहे हैं। इसलिए ईमानदारी का लबादा उतना ही पहनिए जितने से सिस्टम चल जाए।
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यह किसकी कृपा बरस रही
प्रमोशन के मुद्दे पर कर्मचारी संगठन दो अलग-अलग वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सर्वविदित है कि इनमें से एक वर्ग वाले संगठन पर आईएएस अफसरों का कब्जा है। इसी संगठन से जुड़े हुए एक वरिष्ठ आईएएस अफसर रिटायर हो गए हैं। हाल ही में सीहोर के एक कॉलेज में उपद्रव में छात्रों को जिस कैंटीन से खराब खाने की शिकायत हुई थी, उसमें इनका बेटा भी पार्टनर है। अब उनका किस्सा। अफसर ने सेवानिवृत्ति के अंतिम दिनों में अपने वर्ग के एक प्रमोटी अफसर पर कृपा कर दी। उन्हें डी टाइप बंगला आवंटित करवा दिया। इसमें इसी वर्ग के एक और प्रमोटी अफसर का भी साथ मिला। जबकि, सीधी भर्ती वाले दूसरी वर्ग के अफसर बंगलों के लिए चक्कर काट रहे हैं।
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अपनों की मदद करनी चाहिए क्योंकि…
वर्गों की चर्चा यूं ही नहीं छिड़ी है। हाल ही में एक आईएएस के बयान ने देशभर में उबाल ला दिया। बयान ऐसा था कि न सिर्फ़ राजनीतिक गलियारों में, बल्कि प्रशासनिक ड्रॉइंग रूम से लेकर व्हाट्सएप ग्रुप तक उसकी गूंज सुनाई देने लगी। इसी बीच, उसी वर्ग की एक और महिला आईएएस का बयान भी सुर्खियों में आ गया। बयान आते ही स्वाभाविक था कि उनकी पूछ-परख बढ़े, और जैसे-जैसे पूछ-परख बढ़ी, वैसे-वैसे उनके इर्द-गिर्द की कहानियाँ भी सतह पर आने लगीं। महिला आईएएस ने जिस सहजता से कहा कि अपने लोगों की मदद करनी चाहिए, उसी सहजता से उनके बंधुओं ने यह भी गिनाना शुरू कर दिया कि किस तरह उनके ही वर्ग की एक सीनियर आईएएएस मैडम की मदद से वे राज्य हम्माल सेवा से होते हुए आईएएस बनीं। कहानी यहीं खत्म नहीं होती। सवाल यह भी उठा कि ऐसी कौन-सी मदद थी, जिसने न सिर्फ़ सेवा में उन्नति का रास्ता खोला, बल्कि बेटे की पढ़ाई यूरोप तक पहुँचा दी। और फिर सवाल रोज़मर्रा के उन शाही खर्चों का भी—जिनका हिसाब न वेतन पर्ची में दिखता है, न आय-व्यय के सार्वजनिक ब्योरे में। प्रशासनिक हलकों में यह चर्चा अब दबे शब्दों में नहीं, खुली फुसफुसाहट में बदल चुकी है—कि मदद सिर्फ़ भावनात्मक शब्द नहीं, एक पूरी व्यवस्था है।
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संबंधों के लिए दूसरे वर्ग क्यों पसंद
जिन दो आईएएस की विवादित टिप्पणियों से देश में बवाल मचा हुआ है, उनमें एक दिलचस्प समानता भी सामने आई है। यह समानता न फाइलों में दर्ज है, न बयान में कही गई—लेकिन सरकारी वीथिकाओं में सबको मालूम है। पहले वाले साहब पर जिन-जिन महिलाओं से संबंध होने के आरोप लगे हैं, वे संयोग से नहीं, बल्कि स्पष्ट रूप से दूसरे वर्ग से ताल्लुक रखती हैं। वहीं दूसरी ओर, महिला आईएएस मैडम के दूसरे जीवनसाथी भी उसी दूसरे वर्ग से हैं। यहीं से कटाक्ष जन्म लेता है। सवाल पूछा जा रहा है—जब अपनों को आगे बढ़ाने में वर्ग देखकर मदद की जाती है, जब पोस्टिंग, पदोन्नति और संरक्षण में भेदभाव को सही ठहराया जाता है, तो फिर जीवनसाथी या मित्र चुनते वक्त वही वर्ग क्यों नहीं याद आता? यह सवाल प्रशासनिक नहीं, मनोवैज्ञानिक है। इसलिए चुप्पी ही ठीक रहेगी।
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कलेक्टर मैडम की नई परंपरा
शिकायतों का त्वरित निपटारा हो, तभी प्रशासन और सरकार ज़मीन पर नज़र आती है। शायद इसी सोच के साथ एक जिले की कलेक्टर मैडम ने जनसुनवाई में नई परंपरा शुरू की। मैडम ने जनसुनवाई के दौरान ऐसी दस शिकायतें चुनीं, जिनका निपटारा लंबे समय से लंबित था। इन शिकायतों से जुड़े विभाग प्रमुखों को भी जनसुनवाई में बुलाया गया। लेकिन…पर हमेशा की तरह, सभी शिकायतों का निपटारा नहीं हो पाया। अधिकारियों के बीच बेचैनी साफ़ दिखाई देने लगी। वजह यह नहीं कि शिकायतें उठाई गईं, बल्कि यह कि मैडम को यह समझाया नहीं जा सका कि जिन शिकायतों का समाधान संभव है, उनके लिए निर्देश ही पर्याप्त होते हैं। और जो शिकायतें हल नहीं हो पा रही हैं, वे इसलिए नहीं कि अफसर काम नहीं कर रहे, बल्कि इसलिए कि वे हल न होने वाली श्रेणी की हैं। इसलिए खामखा वक्त की बर्बादी हो रही है।
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