द इनसाइडर्स: सीएस की दौड़ में महिला अफसर की लॉटरी, भैया जी ने पढ़े पूर्व सीएम मे कसीदे, आईएएस पर भारी पड़ी दिल्ली की बातें
द इनसाइडर्स में पढ़िए सत्ता में चुगली आधारित अर्थव्यवस्था की पांचवीं श्रृंखला।

कुलदीप सिंगोरिया@9926510865
भोपाल | चुगली आधारित अर्थव्यवस्था भाग 5.. पिछले अंक में चुगलीकारों के विभिन्न प्रकारों के साथ ही हमने major sink वाले “कच्चे कान” की चर्चा की। अब बात करते हैं “सेलेक्टिव कान” की। “सेलेक्टिव कान” दरअसल खबर रसिया होते हैं ..पर ये चुगलकारों को अलग अलग तरह से उपयोग करते हैं। अन्य विभागों की खबर के लिए ये “नारद मुनि ” वाले चरित्रों से सुनते हैं। उन्हें कार्यालय तक सीमित रखते हैं। कार्यालय की खबर के लिए ये “हरि राम नाई” को सुनते हैं। इन्हें बंगले तक आने की अनुमति होती है। और अपनी ओपिनियन को कन्फर्म करने के लिए ये “बीरबल” की सुनते हैं। बीरबल की पहुंच तो किचन/बैडरूम/दिल तक भी होती है। कुल मिलाकर ये चुगलकारों का युक्त युक्ति करण करते हैं। और “कच्चे कान” की प्रिय मंथरा प्रजाति को ये दूर ही रखते हैं। पर ये अपने खबर रसिया भाव को छिपा नहीं पाते।
अब बात “फ़िल्टर कान” की। फ़िल्टर कान …फ़िल्टर कॉफी की तरह कड़क और निरपेक्ष एक्सप्रेशन वाले खबर प्रेमी होते हैं। होते ये खबर रसिया ही हैं पर एक्सप्रेशन ऐसे देंगे कि मुझे खबरों से कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं तो बस काम में लगा रहता हूँ। दरअसल ये सपाट चेहरे के साथ फ़ाइल करते हुए खबरें सुनते हैं। ध्यान फ़ाइल में कम खबर में ज्यादा होता है। खबरों को फ़िल्टर कर मेमोरी में स्टोर कर लेते हैं। और इनर सर्किल में खबरों के अपने ज्ञान को प्रदर्शित करते हैं। ये वो बैट्समैन होते हैं जो बॉल की तरफ नहीं जाते ..बॉल(खबर) को बैट(कान) पर आने का इंतजार करते हैं। और अब अंतिम प्रजाति “बहरे कान”, ये वो प्रजाति है जो बेहद एकाग्रता से अपने ध्येय में लगी रहती है। इन्हें किसी खबर से कोई मतलब नहीं। ये सुनते हैं तो बस सिक्कों की खनक या अपने प्रिय मातहत/ठेकेदार की। जो उनकी धनापूर्ती में सहायक बने। बाकी सबके लिए वो बहरे रहते हैं। पैसे लगा के पोस्टिंग पाई है तो इनका बस एक ही सूत्र रहता है कि “लूट सको तो लूट …जाने कब पोस्ट जाएगी छूट..”। और अंत में विचारणीय – श्यामला हिल्स पर राजा साहब की शुरुआत भी दो बड़े दरबारियों की ब्रीफिंग/फीडबैक से शुरू होती है। फीडबैक कब चुगली स्वरूप ले ले, ये हम नहीं बता सकते। ट्रूमैन कैपोटे (Truman Capote) ने भी कहा है “All literature is gossip.” और हमारी भाषा में Power runs on gossip. अब पेश हैं वे किस्से जो हमारे कानों ने सुनकर आपके कर्णसुख के लिए चटखारेदार अंदाज में परोसा है…
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सीएस बनने की दौड़ और दिल्ली का पत्ता
31 अगस्त की घड़ी टिकी है और राजकीय ड्रामा फिर से अपनी पारंपरिक शिद्दत पर है। मौजूदा मुख्य सचिव का कार्यकाल ख़त्म होने जा रहा है और हवा में एक्सटेंशन की अफवाहें मंडला रही हैं — ठीक वैसे ही जैसे गर्मियों में पेड़ों पर साबुत आम। हालांकि, वे खुद को अजर-अमर मान बैठे थे और एक्सटेंशन की उम्मीद में “कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना” वाला गाना गुनगुना रहे थे। पर सरकार का मूड बिगड़ा पड़ा है। दिल्ली दरबार से सिफारिशें भी हो चुकी हैं, लेकिन वहाँ “दिल्ली अभी दूर है” वाली कहावत सच साबित हो रही है। इन हालात में अचानक एक महिला अफसर की लॉटरी लगने की चर्चा है। उनका कार्यकाल बस आठ महीने का होगा — आठ महीने का चाँद। इसके बाद सरकार के “पसंद के मोती” को गद्दी सौंप दी जाएगी। इस बीच दिल्ली की गलियों से एक और नाम उड़कर आया है। अगर वे आ गए तो मंत्रालय की कई कुर्सियाँ ऐसे उड़ेंगी जैसे “कालीचरण” फिल्म में रज़ा मुराद की एक हुंकार पर खलनायक उड़ते थे।
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दारू वाले भैया और पूर्व सीएम के कसीदे
एक मंत्री ने एक अफसर को “दारू वाले भैया” उपाधि से नवाजा है। हालांकि नौकरशाही में उन्हें भैया या भैयाजी प्रणाम कहा जाता है। वजह साफ है, सोमरस का भंडार उन्हीं के पास है। अफसर बिरादरी से लेकर स्टाफ तक, सब उन्हीं पर निर्भर हैं। अब ताज़ा किस्सा सुनिए। मिड-टर्म ट्रेनिंग में वे गए तो ‘लाड़ली बहना’ योजना पर प्रस्तुति देते हुए उन्होंने पूर्व सीएम के इस कदर कसीदे पढ़े कि “तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको” वाला बरबस ही याद आ गया। लोग कहने लगे — साहब का दिल मौजूदा सरकार से ज्यादा, पूर्व सरकार पर आया है। हो सकता है यह चाटुकारिता नई पोस्टिंग के लिए पासपोर्ट बन जाए। और अगर सरकार नाराज़ हुई तो लूप लाइन स्टेशन पर टिकट कटा ही समझिए। खास बात — ट्रेनिंग के दौरान उन्होंने साथियों को भी सोमरस से तर रखा। वही पुराना नियम: “खुदा के घर देर है, अंधेर नहीं… पर दारू वाले भैया के घर कभी देर नहीं।”
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दो अफसरों ने भद पिटाई
इस बार मिड-टर्म ट्रेनिंग में दो अफसरों ने मध्यप्रदेश की साख पर बट्टा लगाया। एक महिला अफसर, जो ट्रेनिंग सेंटर में ही पदस्थ थीं, इतनी घटिया ट्रेनिंग दी कि पहली बार ट्रेनिंग पर आए अफसरों ने फेकल्टी की मिमिक्री कर दी। दूसरे अफसर जब बोलने खड़े हुए तो सबने सिर पीट लिया। लोगों ने कहा — “इनसे बेहतर तो गजोधर भैया भाषण दे देते।” सवाल उठने लगे कि ये अफसर बने कैसे?
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मामा की निराली अदा
मामा जी का जादू अभी भी कायम है। 17 साल राज करना यूं ही नहीं होता। “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी” — यही बात मामा के राजनीतिक जीवन पर फिट बैठती है। हालिया किस्सा देखिए। मामा के पुराने साथी और मीसाबंदी रहे एक कार्यकर्ता का निधन हुआ। सामान्य नेता शोक संदेश तक भेजकर छुट्टी कर लेते। लेकिन मामा ने अख़बारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन करने जा रहा हैं। जबकि, सरकार, मंत्री और पार्टी पदाधिकारियों को यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए थी।
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कलेक्टरी की कुर्सी की दौड़
नौकरशाही में दो कुर्सियों की चमक सबसे ज्यादा है — सीएस और इंदौर कलेक्टर। इंदौर कलेक्टर साहब प्रमोट हो रहे हैं। लिहाजा, कुर्सी खाली होते ही “ये दौड़ है दीवानों की, दीवानों की…” वाला गीत चल पड़ा है। पानी वाले निगम के एक साहब के नाम की चर्चा है। वहीं भोपाल वाले साहब भी जल्द प्रमोट होंगे, इसलिए ग्वालियर-चंबल की एक महिला अफसर दौड़ में शामिल हो गई हैं। अफसरों की लॉबी में यह जुमला गूंज रहा है — “भाग दौड़ जिंदगी का हिस्सा है” (फिल्म गुरू)। लेकिन फाइनल लिस्ट 31 अगस्त के बाद ही निकलेगी।
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दिल्ली की बातें भारी पड़ीं
दिल्ली से लौटे एक अफसर पर वर्क‑कल्चर की छाप अभी भी साफ़ है — काम भी कर रहे हैं और रिज़ल्ट भी दे रहे हैं। इसलिए तारीफ भी हो रही है। लेकिन एक मीटिंग में जैसे ही दिल्ली का जिक्र छेड़ा, अपर मुख्य सचिव महोदय गरज पड़े — “अब दिल्ली की बातें मत करो, अब तुम भोपाल में हो।” साहब को समझना चाहिए कि यह दिल्ली नहीं, मध्यप्रदेश है। यहाँ “चलते-चलते मेरे ये गीत याद रखना” की जगह “चलते-चलते यहीं फंस जाना” ज्यादा फिट बैठता है।
मंत्री जी की मजबूरी और धाकड़ अफसर
राजधानी का एक अफसर धाकड़ स्टाइल में बार और अवैध शराब पर कार्रवाई कर रहा है। फिल्म दंगल का गाना — “धाकड़ है, धाकड़ है” — उन पर सटीक बैठता है। नाराज कारोबारी जब मंत्री जी के पास पहुंचे तो मंत्री जी ने हाथ जोड़ दिए — “मेरा क्या कसूर साहिबा, मेरा तो बस यही कसूर है कि मैं मंत्री हूं पर असली पावर ऊपर वाले के पास है।” मंत्री जी मजबूर हैं। असली खेल एक शराब कारोबारी के इशारे पर चल रहा है, जिसकी सूचना पर कार्रवाई होती है।
अर्धनारीश्वर एसपी साहब
अब आते हैं पुलिस की इज्जत पर। एक जिले के एसपी साहब ने ऐसा काम किया कि विपक्ष के विधायक ने उन्हें “अर्धनारीश्वर” कह दिया। अब आप सोचिए, जिस पद को कभी दबंग छवि का प्रतीक माना जाता था, वहाँ यह उपाधि मिली। फिल्म सिंघम का डायलॉग याद आता है — “आता माज्हा सिंगम!” लेकिन यहां जनता कह रही है — “आता माज्हा अर्धनारीश्वर।” मंत्री जी की कृपा से पद बचा हुआ है, लेकिन ऊपर तक रिपोर्ट जा चुकी है। हो सकता है जल्द ही “चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों” की तर्ज पर वे जिले से रुखसत हो जाएं।