द इनसाइडर्स : मंत्री और कमिश्नर से ज्यादा ताकतवर पंडित जी, सुशासन में खिलेंगे गुल, कलेक्टर्स के यहां सुलेमानी दावत
द इनसाइडर्स में इस बार पढ़िए अखिल भारतीय सेवाओं के तीसरे प्रकार आईएएस की कहानियां

भोपाल। अथर्ववेद का एक मंत्र है: “अरण्य ते पृथ्वी स्योनमस्तु”
अर्थात् — “हे वन, पृथ्वी के लिए शुभ हो।” यह न केवल भारतीय वन सेवा (IFS) का ध्येय वाक्य है, बल्कि ‘द इनसाइडर्स’ की नई श्रृंखला का नाम भी है। भारतीय संस्कृति में वन, प्रकृति और वनस्पतियों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। चारों वेदों में इसके स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। ऐसा ही एक सुंदर मंत्र यजुर्वेद में मिलता है:
📜 “शं नो वनस्पतयः शं नः सन्तु पुष्पिणः।
शं न ऊर्वन्तरिक्षं शं नः पाथोऽशं नः प्रभातयः॥”
यानी वनस्पतियाँ हमारे लिए कल्याणकारी हों, फूल शुभता प्रदान करें, आकाश और जल हमारे लिए हितकारी हों, तथा प्रभात (सुबह) भी हमारे लिए मंगलमय हो। भारतीय समाज में वनों का स्थान इतना आत्मिक था कि किसी भी शासक ने इसके लिए अलग से कोई प्रशासनिक व्यवस्था नहीं बनाई। आदिवासी समुदाय सदियों से न केवल जंगलों से वन-संपदा एकत्र करते आए हैं, बल्कि उनका संरक्षण भी करते रहे हैं। लेकिन ब्रिटिश शासन में स्थिति बदल गई। 1864 में वन विभाग की स्थापना हुई, और 1867 में ‘इम्पीरियल फॉरेस्ट सर्विस’ की शुरुआत की गई। 1878 के विवादास्पद वन अधिनियम ने वनों पर अंग्रेजों की पूर्ण अधिकारिता स्थापित कर दी, जिससे आदिवासियों के पारंपरिक अधिकार समाप्त कर दिए गए। 1938 में देहरादून में इंडियन फॉरेस्ट कॉलेज की स्थापना हुई, और इसी दौरान रेलवे नेटवर्क का विस्तार कर वनों की बेशकीमती संपदा को इंग्लैंड भेजने का सिलसिला तेज हो गया। ब्रिटिशों के लिए वन संरक्षण नहीं, बल्कि दोहन प्राथमिक था। यही कारण था कि सेवा प्रमुख का नाम ‘इंस्पेक्टर जनरल ऑफ फॉरेस्ट’ रखा गया — न कि आज की तरह ‘प्रमुख वन संरक्षक’।
🌿 इसी शोषणवादी व्यवस्था को पलटने और वेदों की मूल भावना को साकार करने के उद्देश्य से 1966 में भारतीय वन सेवा (IFS) की स्थापना की गई। जहां पहले वन विभाग केवल संसाधनों के दोहन का माध्यम था, वहीं आज की सेवा में “वन संरक्षक” जैसे मानवीय पदनाम सामने आए, जो संरक्षण और संवेदनशीलता का प्रतीक हैं। लेकिन… अब यह वन संरक्षण की व्यवस्था धीरे-धीरे “जंगल में मंगल या मौज” की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है। इस सेवा में आ रहे पतन और अंदरूनी घटनाओं पर विस्तार से चर्चा हम ‘द इनसाइडर्स’ के अगले अंक में करेंगे। तब तक…लीजिए ‘द इनसाइडर्स’ के चुटीले किस्सों का आनंद!
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कुशासन संस्थान से हुई विदाई
कुशासन में डूब चुके एक संस्थान को सुशासन की राह पर लाने के लिए सरकार ने आखिरकार वहां के प्रभारी मुखिया को विदा कर दिया। ‘द इनसाइडर्स’ में इस मुखिया और उसकी गैंग के कारनामों को हमने पहले ही उजागर किया था। सरकार ने संज्ञान लिया, और हटाने का फरमान जारी कर संस्थान में गुलशन खिला दिया। साथ ही एक ऋषि स्वरूप व्यक्तित्व को भी नई जिम्मेदारी सौंप दी गई है। उम्मीद है कि यह नई जोड़ी संस्थान को फिर से शीर्ष पर पहुंचाने में सफल होगी।
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पर एक संस्था अब भी अनाथ
व्यापार एवं सामाजिक संस्थाओं के पंजीयन से संबंधित एक संस्था अभी भी मुखिया विहीन है। जो प्रभारी हैं, उनके दामन पर कई दाग हैं — दाग सच्चे हैं या झूठे, यह तो जांच एजेंसियां तय करेंगी, लेकिन इस फेर में प्रशासनिक कामकाज बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। सुनवाई ठप है, फाइलें रुकी हैं, और पुराने अधिकारी भी इस हालत पर चिंतित हैं। वे सवाल उठा रहे हैं — “आखिर छोटे व्यापारियों और सामाजिक संगठनों की रजिस्ट्री में सरकार की रुचि क्यों नहीं दिखती?”
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मंत्री और कमिश्नर से ज्यादा प्रभावशाली पंडित जी
आवागमन से संबंधित एक विभाग में एक पंडित जी की पूछ-परख मंत्री और कमिश्नर से भी ज्यादा हो गई है। पंडित जी की जिम्मेदारी है – सेवा राशि वसूलना। हर माह जिलों के अफसरों से सेवा राशि लेकर उसका सही-सही हिसाब रखते हैं। जब अफसर को कोई दिक्कत होती है, तो वे सबसे पहले पंडित जी को ही याद करते हैं। कह सकते हैं कि पंडित जी सेवा दिलाने वाले ‘सर्विस प्रोवाइडर’ बन चुके हैं। अब विभाग में ‘सोने की ईंटों’ की वजह से कटर रखने वाली व्यवस्था पर अल्पविराम लगा हुआ है। ऐसे वक्त में पंडित जी काम काबिलेतारिफ है।
पत्नी कर रही पति की ‘प्राकृतिक’ मदद
आज का विषय प्रकृति से जुड़ा है — और इसी संदर्भ में बात हो रही है एक खास जोड़ी की। वातावरण से जुड़े एक महकमे में तैनात आईएएस पत्नी, संसाधनों से जुड़े विभाग में कार्यरत पति की अनोखे अंदाज़ में मदद कर रही हैं। यदि कोई कंपनी पति के विभाग में अड़ंगा डालती है या ‘सहयोग राशि’ देने से हिचकती है, तो जब वह एनओसी या क्लीयरेंस के लिए पत्नी के पास जाती है — तो वहां फाइल अटक जाती है। सेवा राशि की इस अद्भुत जुगलबंदी में, दोनों अलग-अलग विभागों में रहकर भी “एक दूजे के लिए” भावना को बखूबी निभा रहे हैं। ऐसी मिसाल शायद सिर्फ अजब-गजब प्रदेश में ही देखने को मिलती है।
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सुलेमानी ताकत अब भी असरदार
कुछ लोगों ने सोचा था कि साहब के वीआरएस लेने के बाद उनकी सुलेमानी ताकत कमजोर पड़ जाएगी। लेकिन वे भूल गए कि साहब आज भी बड़े साहब के अभिन्न मित्र हैं। अब तो वे और भी ज्यादा बोल्ड हो गए हैं — कभी किसी कलेक्टर के यहाँ दावतें उड़ा रहे हैं, तो कभी अपने पुराने पैसे को ‘सफेद’ करने में व्यस्त हैं।एक कंपनी जो साहब के कार्यकाल स्वास्थ्य लाभ लेने आई थी, पहले थोड़ी चिंतित थी — लेकिन साहब ने भरोसा दिलाया: “टेंडर को कुछ नहीं होगा, बड़े साहब का संरक्षण जो है।” वैसे उनकी यह बात सच भी है क्योंकि अब टेंडर से जुड़े विवाद थम गए हैं।
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