द इनसाइडर्स स्पेशल: शराब की लत हमें अपने पूर्वज बंदरों से मिली! जीन में लिखा है नशे का इतिहास

एक करोड़ साल पुराने जेनेटिक उत्परिवर्तन ने इंसान, चिम्पैंज़ी और गोरिल्ला को अल्कोहल पचाने में सक्षम बनाया।

स्रोत फीचर्स |  अब तक आप यही सोचते होंगे कि दारु की आदत मोहल्ले के ठेके या पार्टी की टेबल से शुरू हुई होगी। पर ताज़ा शोध कहता है— “न भाई, ये तो पारिवारिक धरोहर है, जो हमें सीधा हमारे वानर-पूर्वजों से मिली है।” सुनने में अजीब लगता है, पर जनाब, विज्ञान यही कह रहा है!

जरा कल्पना कीजिए— लाखों साल पहले घने जंगल में एक वानर महाशय पेड़ से गिरे हुए सड़े-गले फलों पर टूट पड़े। फलों में हल्की-सी खमीर (yeast) की खुशबू उठी और बेचारे बंदर हो गए झूम बराबर झूम। यानी उन्होंने अनजाने में पहला पैग ठोक दिया। और फिर शुरू हुई हमारी महान परंपरा, जिसका नतीजा है कि आज हर मोहल्ले में “दारु बंद करो” का बैनर भी दिखता है और हर नुक्कड़ पर “एक पैग और” की दुकान भी।

वैज्ञानिकों ने तो इस प्रवृत्ति को बड़ा प्यारा नाम दिया है— स्क्रम्पिंग (Scrumping) यानी फलचोरी। अब भले ही आपके मोहल्ले के शरबतलाल को यह लगे कि वह अपनी पसंद से जाम छलका रहे हैं, असलियत यह है कि यह आदत हमारे जीन (genes) में दर्ज है। कह लीजिए, “पिताजी नहीं, पर-पर-परदादा जी की ही देन है ये।”

कैसे शुरू हुई यह कहानी?

बायोसाइंसेज़ (Biosciences) में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि हमारे वानर पूर्वज यानी वनमानुष गिरे हुए फल खाते थे। ये फल अक्सर किण्वित (fermented) होते थे और उनमें शराब (alcohol) जैसा असर पैदा हो जाता था। जीव वैज्ञानिक रॉबर्ट डूडले ने एक परिकल्पना (hypothesis) दी थी— शराबखोर बंदर (Drunken Monkey Hypothesis)। उनके अनुसार, लाखों साल पहले वानर इन गिरे हुए फलों को खाते थे और यही उनकी शराब से पहली मुलाकात थी।

क्यों खाते थे ये फल?

सड़े-गले फलों की गंध दूर तक फैल जाती थी। वानर इन्हें आसानी से सूंघकर ढूंढ लेते थे। बाकी जानवर इन फलों को खाने से कतराते थे, लेकिन हमारे पूर्वज इन्हें चट कर जाते थे। यानी शराब जैसी गंध वाले इन फलों ने वानरों को प्रतियोगिता (competition) में फायदा पहुँचाया।

जीन में दर्ज है शराब पचाने की ताकत

2015 में किए गए एक जेनेटिक (genetic) अध्ययन से पता चला कि मनुष्य, चिम्पैंज़ी और गोरिल्ला में एक ऐसा उत्परिवर्तन (mutation) हुआ, जिससे अल्कोहल पचाने वाले एंज़ाइम (enzymes) की क्षमता 40 गुना बढ़ गई। यह बदलाव लगभग 1 करोड़ साल पहले आया था।

 शोधकर्ताओं का नया तरीका

पहले अनुमान था कि वानर बहुत कम किण्वित फल खाते होंगे। लेकिन शोधकर्ताओं ने एक नया आइडिया निकाला— अगर हम सिर्फ पेड़ से गिरे हुए फलों पर ध्यान दें तो ज्यादा सही अनुमान मिलेगा। गिरे हुए फलों में अक्सर किण्वन की शुरुआती प्रक्रिया (initial fermentation) चल रही होती है।

डार्टमाउथ कॉलेज के नाथेनियल डोमिनी और उनकी टीम ने चार प्रजातियों पर अध्ययन किया—

  • बोर्नियो के ओरांगुटान
  • युगांडा के चिम्पैंज़ी
  • अफ्रीका के गोरिल्ला (दोनों प्रजातियाँ)

नतीजा यह आया कि चिम्पैंज़ी और गोरिल्ला अक्सर गिरे हुए फल खाते थे (25–62% तक), जबकि ओरांगुटान ऐसा कम करते थे। खास बात यह है कि ओरांगुटान में अल्कोहल पचाने वाला जीन-परिवर्तन (mutation) नहीं पाया जाता।

वैज्ञानिकों की आपत्ति

कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि इतने छोटे नमूने (sample) से निष्कर्ष निकालना सही नहीं है। हो सकता है यह आदत सिर्फ कुछ समूहों (populations) तक सीमित रही हो। उदाहरण के लिए, हार्वर्ड के वैज्ञानिक रिचर्ड रैंगहैम बताते हैं कि उन्होंने युगांडा के जिन चिम्पैंज़ियों का अध्ययन किया, उन्होंने तो गिरे हुए फलों को नज़रअंदाज़ ही किया। फिर भी यह अध्ययन एक अहम बात बताता है— करीब 10,000 साल पहले जब इंसानों ने जानबूझकर शराब बनाना शुरू किया, तब तक हमारा शरीर (biology) इसे झेलने के लिए तैयार हो चुका था।

तो अगली बार जब कोई समझाए— दारु छोड़ दो भाई, तो हंसकर जवाब दीजिए—
छोड़ना मेरे बस में नहीं। यह तो जीन (genes) की गलती है, परपरपरदादा बंदर की छोड़ी हुई विरासत है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। खास खबर का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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