द इनसाइडर्स: आईपीएस के पति को दुकानदार ने गिफ्ट नहीं किया फोन, विधायक ने विदेश में बढ़ाई देश की साख, हरिराम रूपी अफसर का नया कारनामा
'द इनसाइडर्स' में पढ़िए मुख्यसचिव की कुर्सी के लिए चल रही मैराथन की कहानी

कुलदीप सिंगोरिया@9926510865
भोपाल | ‘टूटती सांसें और हसरतों का तिलस्म’… इस सप्ताह का, या यूं कहें पिछले कई सप्ताहों का सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न – क्या मौजूदा साहब को एक्सटेंशन मिलेगा? ये हम क्या, दिल्ली की पेचिदगियों की वजह से स्वयं सरकार भी नहीं जानते। किंतु पिछले लंबे समय से चौथी मंजिल और पांचवी मंजिल के बीच के बीच के फासले पर चर्चाओं का बाज़ार गर्म रहा है। सत्ता तंत्र में भी दो धड़े वल्लभ भवन की लिफ्ट की तरह हो गए हैं। कुछ लिफ्ट सिर्फ चौथी मंजिल पर ही रुक जाती हैं और कुछ पांचवी तक जाती हैं। बहुत सारे सिस्टम वाले व्यवहारिक लोग इस ‘अव्यवहारिक ईमानदारी’ को माला पहनाने को आतुर हैं..। परन्तु साहब शाहनामा से बड़े साहब पधारे थे और कौन जाने फिर शाहनामा जारी हो और दोनों मंजिलों को एकाकार होना पड़े। वैसे भी मोह(न) और अनुराग पर्यायवाची शब्द हैं। हम पाते हैं कि पूर्व के बड़े साहबों ने भी एक्सटेंशन लिया था। किंतु हमारा सवाल यक्ष प्रश्न से इतर है – क्यों दम तोड़ती साँसों में इच्छाएं बलवती हो जाती हैं? क्यों सन्यास(सेवानिवृत्ति) से परहेज? क्या लगभग 35 वर्ष के कार्यकाल में भी क्षुधापूर्ती नहीं हुई? उत्तर में हम पाते हैं कि दरअसल ये देह (आजीविका ) को ही आत्मा (जीवन) मान बैठे हैं। संघर्ष और UPSC उद्द्यम से प्राप्त नाम, धन, गाड़ी, नौकर और बंगला आदि की सुविधाओं के परिवार समेत इतने भोगी हो चुके होते हैं कि सन्यास(सेवानिवृत्ति) का भाव भी इनके रोंगटे खड़े कर देता है। और ये एक शराबी की तरह पैग पर पैग (एक्सटेंशन पर एक्सटेंशन) मारते जाते हैं। शराबी ये जानता है कि कल सुबह बहुत परेशानी होने वाली है लेकिन वो भूल कर नशे में ही रहना चाहता है। वरिष्ठों की इस लोलुपता के प्रदर्शन से कनिष्ठों में स्थानांतरण के बाद भी निरस्त करवा कर वहीं बने रहने के भाव को बल मिलता है। बहरहाल 29 अगस्त को जो भी हो पर हमारा सम्पादक मंडल चौथी मंजिल को रिजिड सिस्टम में अपनी अलग छाप छोड़ने के लिए बधाई और शुभकामनाएँ देता है। और अब शुरू करते हैं साप्ताहिक चुगलियों से भरपूर आज का ‘द इनसाइडर्स’। अपने वहीं किस्सागोई और चुटीले अंदाज में…
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- मैं नहीं थी सीएस की दावेदार
सीएस की कुर्सी की रेस मानो “मैराथन दौड़” नहीं, बल्कि रॉयल एनक्लोज़र का डर्बी हो—जहाँ घोड़े कम और जॉकी ज़्यादा दौड़ रहे हैं। केंद्र सरकार ने एक दावेदार को अचानक एक कमीशन में भेज दिया। अब अफसर लॉबी कह रही है—“भईया, इन्हें तो ‘साइड स्क्रीन’ पर खड़ा कर दिया गया।” लेकिन मैडम का जवाब बड़ा ही मस्ताना—“मैं तो थी ही नहीं इस रेस में।”
यह वही स्थिति है जो कबीर ने कही थी—
“कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ,
जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।”
यानी लोग चाहे जितना गाएँ कि आप दावेदार थीं, पर आप तो खुद को निर्मोही संत बताकर पल्ला झाड़ लेती हैं।
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- प्रभार में भी बैटिंग कर रही आईपीएस मैडम
ज़िले में एसपी साहब ट्रेनिंग पर गए और प्रभार एक महिला आईपीएस को सौंपा गया। लेकिन यहाँ प्रभार का मतलब “कार्यभार” नहीं, बल्कि “मौका अवसर पर चौका” हो गया। मैडम ने नोटिसों और ट्रांसफरों की बौछार कर दी—मानो “रंग बरसे भीगे चुनरवाली” का अफसरशाही संस्करण चल रहा हो। इतना ही नहीं, साहब-पति भी राजधानी में केंद्रीय विभाग की पदस्थापना को छोड़ जिले में डेरा जमाकर स्थानीय कार्यक्रमों में “मियां-बीवी राज करे, जनता करे सलाम” का दृश्य रच रहे हैं। मोबाइल वाला किस्सा तो और मजेदार है— पति ने एक टीआई से बोले, “एक अच्छा फोन दिलवा दो।” टीआई ने दुकान बता दी, साहब गए, दुकानदार ने पाँच हज़ार की छूट दी। पर हुज़ूर का राजसी नखरा ऐसा कि बोले—“बस इतना ही? रहने दो।” और फोन वापस रख दिया।
याद आता है गालिब का शेर—
“हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल के बहलाने को ‘गालिब’ ये खयाल अच्छा है।”
मोबाइल तो मुफ्त लेना ही था, पर दिल को बहलाने के लिए राजसी नखरा भी ज़रूरी था।
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- विधायक ने विदेश में रखी देश की साख
भारतीय राजनीति में अक्सर नेता विदेश जाएं तो जनता को लगता है—“बस, अब विदेश की हसीन धरती के फोटो खिंचवाकर लौट आएंगे।” लेकिन घाटों के ज़िले से आए युवा विधायक ने इस धारणा को तोड़ा है। मुंबई से एमबीए, फर्राटेदार अंग्रेज़ी, और पर्यावरण की चिंता—यानी “ज्ञान, विज्ञान और संवाद” सब साथ लेकर चल रहे हैं।
ब्राज़ील की संसद में आयोजित Parliamentary Summit on Climate Change for Latin America & Caribbean में भारत की तरफ़ से बोले तो लगा मानो “भारत की धरती गा रही हो”—
“वंदे मातरम, शुभ्र ज्योत्स्ना, पुलकित यामिनी…”
वरिष्ठ मंत्री ने भी उनकी तारीफ़ में कसीदे पढ़ डाले।
बस, हम तो यही कहेंगे—अंतरराष्ट्रीय मंचों की चमक ठीक है, पर विधानसभा क्षेत्र की गलियों का धूल-धक्का भी याद रखिए। वरना राजनीति बड़ी बेरहम है—कभी भी “गेम ओवर” का बटन दबा देती है।
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- गोल्डन सिटी को कौन उजाड़ रहा है
नर्मदापुरम रोड पर बनी गोल्डन सिटी—नाम सुनते ही लगता है मानो “स्वर्णिम मध्यप्रदेश” की झलक हो। यहाँ रईसों का डेरा है, और अफसरों का बसेरा भी। लेकिन अफसरों की एक खेप ने “बिल्डिंग बाय-लॉज़ को बाय-बाय” कर दिया है। एक सीनियर अफसर, जो अगले साल रिटायर होने वाले हैं, ने तो एफएआर की ऐसी-तैसी कर दी। सोसायटी के ग्रुप में उनके ख़िलाफ़ “डिजिटल धरना” चल रहा है। एक रहवासी ने मज़े से चुटकी ली—“अरे भाई, रिटायरमेंट के बाद मकान और संपत्ति पर नज़र तो लगेगी ही।अफसर के बारे में यह भी बता दें कि साहब जिस विभाग में हैं, वहीं से खनिज यानी रेत, गिट्टी से लेकर मकान निर्माण की सामग्री आ रही है।
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- हरिराम का शिकायती अंदाज़
लगभग दो दशक से अपने कैडर में “हरिराम” नाम से मशहूर साहब—और नाम इतना फिट है कि अब तो लोग असली नाम भूल ही चुके हैं। मंत्रालय में अहम पद, शानदार कक्ष, बढ़िया स्टेनो, और अब नया नखरा—“ड्राइवर भी ऐसा चाहिए जो दूसरे धर्म का हो ताकि त्योहार पर छुट्टी न करे।” लेकिन अफसोस, साहब का दांव उलटा पड़ गया। ड्राइवर दिन में पाँच बार नमाज़ पढ़ने वाला निकला।
अब साहब फिर कह रहे हैं—“नहीं-नहीं, स्वधर्मी चाहिए।”
सिचुएशन वही—
“दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन…”
लेकिन मंत्रालय में अफसरशाही का धैर्य टूटने लगा है। कनिष्ठ अफसर कभी भी विद्रोह कर सकते हैं। कहना पड़ेगा—“हरिराम की नखरियों वाली अदा, अफसरशाही पर भारी पड़ी।”
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- छुटभैया नेता की तरह उद्योगपति
पिछले राज के खासमखास रहे उद्योगपति आजकल “खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे” वाली हालत में हैं। पार्टनर से मतभेद, मशीनरी की बिक्री, और कंपनी की माली हालात सुधारने की बजाय उन्हें अखबारों में प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ़ खबरें छपवाने का छुटभैया नेताओं वाला शौक चर्राया है। मज़े की बात यह है कि प्रतिद्वंदी कंपनी सरकारी अस्पताल में तो इन जनाब की कंपनी एक मेडिकल कॉलेज में ठेका लिए हुए है। यानी दोनों का का काम अलग-अलग है। पर खाली वक्त इंसान को क्या-क्या नहीं कराता!
जैसे अकबर इलाहाबादी ने कहा था—
“हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,
वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।”
उद्योगपति साहब भी अब “क्लास वन इंडस्ट्रियलिस्ट” से “लोकल छुटभैया” जैसी छवि बनाने में जुटे हैं।
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- प्रमुख सचिव ने मंत्री के ओएसडी के पर कतर दिए
राजनीति और नौकरशाही का मिलन अक्सर “नदिया के दो किनारे” की तरह होता है—पास भी और दूर भी। लेकिन इस बार मामला टकराव का है। एक प्रमुख सचिव ने मंत्री के ओएसडी का कामकाज घटाकर राजधानी की जिम्मेदारी छीन ली। ओएसडी साहब नाराज़ हो गए। मंत्री के कान भरना शुरू—“देखो जी, ये अफसर हमारे अधिकारों का हनन कर रहे हैं।”
स्थिति वही बन गई है—
“तू डाल-डाल, मैं पात-पात।”
अब देखना है कि इस शक्ति संघर्ष में कौन टिकता है—फाइलों का जादूगर प्रमुख सचिव या राजनीतिक आशीर्वाद से लैस ओएसडी।
- मंत्री जी का मन रौब दिखाए बगैर मानता नहीं
राजधानी से सटे ज़िले के मंत्रीजी का अंदाज़ ही अलग है। लोगों से बदतमीज़ी करना उनकी रोज़मर्रा की आदत है। हाल ही में फिर पत्रकारों से बदतमीजी, मारपीट और गालीगलौच कर डाली। ऊपर से तुर्रा यह कि—“मैं तो नहीं सुधरने वाला, जो करना है कर लो।”
पर लोकतंत्र में मंत्री जी की यह धौंस जनता के बीच उनकी छवि पर “कोयले पे पेंट” की तरह ही रंग छोड़ती है। खैर, मंत्री जी का रौब सत्ता का प्रतीक है, लेकिन जनता कब तक इसे बर्दाश्त करेगी—यह सवाल टलता नहीं।