कैसे मोदी के तीसरे कार्यकाल में और मजबूत हुए बीजेपी-संघ के रिश्ते

नई दिल्ली
आम तौर पर भारतीय जनमानस में यह मान लिया गया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी एक ही है. इसके पीछे विपक्ष का दुष्प्रचार भी रहा है. पर इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता है कि बीजेपी और संघ आपस में इस तरह घुल मिले हैं कि ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ये दो जिस्म एक जान हैं. पर ऐसा भी नहीं है कि दोनों में मतभेद नहीं होते रहे हैं. संघ और बीजेपी के रिश्ते साल दर साल बनते बिगड़ते रहे हैं. बहुत ऊंचे दर्जे के मतभेद दोनों ही संगठनों के बीच पैदा होते रहे हैं . पर खासियत यह रही है कि बहुत जल्दी दोनों ही संगठनों के नेता आपस में मेल मिलाप भी करते रहे हैं. 2024 में भी दोनों के बीच रिश्ते बहुत हद तक बिगड़ गए. लोकसभा चुनावों के परिणामों के बाद बीजीपी और संघ के रिश्तों की तल्खी खुल कर जनता के सामने आ गई थी.
पर नरेंद्र मोदी का तीसरा कार्यकाल, जो जून 2024 में शुरू हुआ, अप्रत्याशित रूप से भारतीय जनता पार्टी (BJP) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के रिश्तों का स्वर्णकाल बन गया. 30 मार्च 2025 को मोदी का नागपुर दौरा इस पुनर्मिलन का प्रतीक बना, जहां उन्होंने RSS संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार को श्रद्धांजलि दी और मोहन भागवत के साथ भविष्य की रणनीति तैयार की. उसके बाद से लगातार यह देखा गया कि बीजेपी और आरएसएस का रिश्ता और मजबूत होता जा रहा है. लाल किले की प्राचीर से संघ की उपलब्धियों की बखान हो या उपराष्ट्रपति पद के लिए संघ बैकग्राउंड वाले सीपी राधाकृष्णन का चयन हो, ऐसा लगता है कि आरएसएस-बीजेपी के रिश्तों का स्वर्ण काल चल रहा हो.
1-मोदी और संघ का संदेश, ताली दोनों हाथ से बजती
जनता में ऐसा समझा जाता है कि संघ बीजेपी का अभिभावक है. इसलिए स्वाभाविक तौर पर यह सवाल बनता है कि पिछले क़रीब ग्यारह साल से केंद्र में काम कर रही बीजेपी सरकार के प्रदर्शन को संघ कैसे आंकता है? इसी साल मार्च में बेंगलुरु में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा बैठक की तीसरी और आख़िरी पत्रकार वार्ता में संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि बीजेपी का आंकलन देश के लोगों ने किया है. संघ देश से अलग नहीं है. और अभिभावक की बात है तो हम किसी भी सरकार के अभिभावक बनने को तैयार हैं, सिर्फ़ भाजपा के नहीं. होसबाले ने स्पष्ट कहा कि कोई भी पार्टी आए और हमारे विचार मिलें तो हम अभिभावक बन सकते हैं. कोई आता नहीं है वो अलग बात है.
होसबाले की बातों से हम समझ सकते हैं कि बीजेपी और संघ के बारे में हम जितना समझते हैं, वास्तविकता उससे कहीं अलग है. कहा जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी कई मौकों पर आरएसएस से सलाह लिया करतीं थीं. वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने अपनी एक किताब में इंदिरा गांधी के करीबी सहयोगी अनिल बाली के हवाले से लिखा है कि, आरएसएस ने 1980 में इंदिरा गांधी को सत्ता में आने में मदद की थी. नीरजा चौधरी ने पुस्तक में लिखा है कि कांग्रेस के प्रति मुसलमानों की नाराजगी को देखते हुए वह अपनी राजनीति का हिंदूकरण करना चाहती थीं, क्योंकि उन्हें पता था कि आरएसएस की ओर से एक मौन संकेत या यहां तक कि उनके प्रति मुसलमानों का एक तटस्थ रुख भी इसमें मददगार हो सकता है.
उपरोक्त बातें लिखने का मतलब सिर्फ इतना है कि संघ और बीजेपी किसी कानून से बंधे हुए नहीं हैं. दोनों अपने रास्ते कभी भी अलग करने के लिए स्वतंत्र हैं. पर नरेंद्र मोदी दूरदर्शी राजनीतिज्ञ हैं. वो बीजेपी को आगे ले जाने के लिए दूसरी विचारधारा वालों से समझौते करते रहे हैं. आरएसएस की विचारधारा तो उनके रगों में दौड़ रहा है. जाहिर है कि मोदी ने यही सोचकर संघ के साथ बीजेपी के रिश्तों को उस ऊंचाई पर ले जाने की कोशिश की है, जहां तक दोनों आज तक नहीं पहुंचे थे.
2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, और उसे एनडीए सहयोगियों पर निर्भर रहना पड़ा. इससे पार्टी को अपनी संगठनात्मक ताकत को मजबूत करने की जरूरत महसूस हुई है. हरियाणा और महाराष्ट्र और दिल्ली विधानसभा चुनावों में संघ ने बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने के लिए छोटी-छोटी बैठकों का आयोजन किया, जिससे दोनों के बीच सहयोग बढ़ा.
शायद यही कारण है कि बीजेपी के संगठनात्मक चुनावों में संघ की पृष्ठभूमि वाले नेताओं को प्राथमिकता दी जा रही है. कई राज्यों में प्रदेश अध्यक्ष के रूप में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) या संघ से जुड़े नेताओं को चुना गया. यह कदम दोनों संगठनों के बीच समन्वय को दर्शाता है.
उपराष्ट्रुपति पद के लिए कैंडिडेट के चयन में भी संघ बैकग्राउंड वाले सीपी राधाकृष्णन को प्राथमिकता और लालकिले के प्राचीर से तारीफ ने इस संबंध को और मजबूती प्रदान की है. उम्मीद की जा रही है कि भविष्य में बीजेपी का अध्यक्ष भी कोई संघ बैकग्राउंड वाला व्यक्ति ही आएगा.
2-पिछले 2 सालों में संघ और बीजेपी के रिश्ते
30 मार्च 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का RSS मुख्यालय, नागपुर में मोदी ने RSS संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार को श्रद्धांजलि दी और मोहन भागवत से मुलाकात की. इसी तरह, 15 अगस्त 2024 को लाल किले से स्वतंत्रता दिवस भाषण में मोदी ने राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक संगठनों की तारीफ की, जिसे अप्रत्यक्ष रूप से RSS के प्रति संकेत माना गया. 15 अगस्त 2025 के अपने भाषण में पीएम मोदी ने आरएसएस की भूरि-भूरि तारीफ की.
हालांकि, इस अवधि में कई मौकों पर RSS और बीजेपी के बीच दूरी बढ़ती नजर आई. नवंबर 2024 में मोहन भागवत का 75 साल की उम्र में रिटायरमेंट बयान को मोदी और शाह पर निशाना माना गया. फरवरी 2025 में बीजेपी अध्यक्ष के चयन में देरी और RSS के पसंदीदा उम्मीदवारों को नजरअंदाज करना भी तनाव को बढ़ाने वाला समझा गया. RSS बीजेपी को अपनी वैचारिक संतान मानता है, लेकिन वह अपनी स्वतंत्र पहचान और प्रभाव बनाए रखना चाहता है. बीजेपी, विशेषकर मोदी-शाह युग में, केंद्रीकृत शक्ति और चुनावी रणनीति पर जोर देती है, जो कभी-कभी RSS की सांस्कृतिक और संगठनात्मक प्राथमिकताओं से टकराती है.
3-नड्डा के एक बयान के चलते रिश्तों में तल्खी आई थी
2024 में BJP के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने एक साक्षात्कार के दौरान कुछ ऐसी बातें कहीं जो संघ और बीजेपी के रिश्तों में तल्खी का कारण बनी. जे.पी. नड्डा ने The Indian Express को दिए एक साक्षात्कार में कहा, शुरू में हम अक्षम थे, RSS की जरूरत पड़ती थी… आज हम बड़े और सक्षम हैं, BJP अपने आप को चलाती है. उन्होंने यह भी जोड़ा कि RSS एक आदर्शवादी मोर्चा है, जो अपने काम में लगा रहता है, जबकि BJP एक राजनीतिक संगठन है जो अपनी स्वतंत्रता से काम करता है. नड्डा का यह दावा कि BJP अब RSS पर निर्भर नहीं है, ने RSS नेतृत्व और कार्यकर्ताओं के बीच नाराजगी पैदा की. नड्डा का बयान RSS को यह संदेश देता प्रतीत हुआ कि बीजेपी अब अपनी मर्जी से काम करना चाहती है और RSS के मार्गदर्शन की जरूरत नहीं समझती. RSS, जो हमेशा से बीजेपी को अपनी राजनीतिक शाखा के रूप में देखता रहा है, ने इसे अपनी भूमिका को कम करने की कोशिश माना. 2024 के चुनावों में RSS की जमीन पर कम सक्रियता को बीजेपी की हार का कारण माना गया.
4- पहले अटल बिहारी वाजपेयी और संघ के बीच अनबन सुर्खियों में रही?
अटल बिहारी वाजपेयी कहते थे कि मैं एक दिन प्रधानमंत्री नहीं रहूंगा लेकिन संघ का स्वयंसेवक आखिरी दम तक बना रहूंगा. इसके बावजूद आरएसएस और वाजपेई के बीच एक वक्त ऐसा भी आया था जब रिश्ते बहुत तल्ख हो गए.
वाजपेई प्रधानमंत्री रहते हुए बाबरी मस्जिद या गोधरा को लेकर उनके विचार खुली किताब की तरह सबके सामने थे. वहीं वे कश्मीर की जनता के दिलों में राज करने लगे थे. अलगावदियों से बातचीत के रास्ते खोल रहे थे. पाकिस्तान को समझा रहे थे कि दोस्त बदला जा सकता है पड़ोसी नहीं. जाहिर है कि संघ में एक वर्ग में उनके खिलाफ हो चला था. उनकी आर्थिक नीतियों का भी संघ में जबरदस्त विरोध हो रहा था.
तत्कालीन संघ प्रमुख सुदर्शन तो एक बार खुलकर वाजपेयी के खिलाफ बयान तक दिया. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि संघ के पहले स्वयंसेवक वाजपेई की सरकार बहुत कुछ अच्छा कर सकती थी, लेकिन वह इसमें नाकामयाब रहे. राम मंदिर निर्माण का रास्ता नहीं बन पाने, वाजपेई के दामाद की सरकार में दखलंदाजी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा को लेकर नाराज़गी बढ़ती गई.बात इतनी बढ़ गई कि ब्रजेश मिश्रा ने एक बार यहां तक कह दिया कि कुएं के मेंढक उनकी नीतियों को नहीं समझ सकते.
5-अतीत में आरएसएस बीजेपी के बनते बिगड़ते रिश्ते
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के रिश्ते हमेशा से बहुत गहरे और जटिल रहे हैं. उसे समझना आसान काम नहीं रहा है.दोनों के बीच सहयोग और टकराव समानांतर रूप से चलते रहे हैं.RSS का गठन 1925 में हिंदू राष्ट्रवाद की विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए हुआ था. बाद 1951 में जनसंघ के रूप में इनकी राजनीतिक शाखा की नींव रखी गई. जो बाद में 1980 में BJP के रूप में बदल कर सामने आई.
बीजेपी के पूर्ववर्ती जनसंघ की स्थापना RSS के समर्थन से हुई, जिसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने RSS के मार्गदर्शन में हिंदू राष्ट्रवाद को राजनीतिक मंच दिया. इस अवधि में दोनों के बीच गहरा तालमेल था, क्योंकि RSS जनसंघ को संगठनात्मक और वैचारिक समर्थन देता था. 1965 के भारत-पाक युद्ध और 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में RSS स्वयंसेवकों के योगदान के चलते जनसंघ की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई.हालांकि बाद में 1977 में जनता पार्टी सरकार में शामिल होने के बाद RSS और जनसंघ (तब जनता पार्टी का हिस्सा) के बीच मतभेद उभरे. ऐसा माना जाता है कि RSS ने जनसंघ को धर्मनिरपेक्ष छवि अपनाने के लिए दबाव डाला, जबकि पार्टी नेतृत्व ने इसे अस्वीकार किया. बिल्कुल उसी तरह जिस तरह पिछले एक साल में वर्तमान आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत बार-बार कहते रहते हैं कि हर मस्जिद में मंदिर ढूंढना बंद करना होगा. इसके बावजूद बीजेपी के कई नेता हैं इस बात को स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं.
1980 में जनसंघ के विघटन और BJP के गठन को भी दोनों के बीच टकराव का परिणाम ही माना जाता है.हालांकि BJP के गठन के बाद, RSS ने उसे फिर से समर्थन दिया. 1989-90 में राम मंदिर आंदोलन में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा और RSS के स्वयंसेवकों की भागीदारी ने BJP को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कर दिया. 1996 और 1998 में BJP की सरकारों में RSS का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दिया था.