द इनसाइडर्स स्पेशल : पेट के बैक्टीरिया तय करते हैं आपका मूड, डिप्रेशन में सही भोजन करेगा दवाई का काम
वैज्ञानिकों का दावा — आंतों का सूक्ष्मजीव संसार ही तय करता है खुशी और चिंता का संतुलन

स्रोत फीचर्स | “खुश रहना है तो पेट ठीक रखो” — यह कहावत अब मज़ाक नहीं, बल्कि विज्ञान बन रही है। दरअसल, अवसाद यानी डिप्रेशन आज दुनिया की सबसे बड़ी मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों में से एक है। यह इंसान के सोचने, महसूस करने और जीने के पूरे ढंग को प्रभावित कर देता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, फिलहाल दुनिया भर में लगभग 28 करोड़ लोग — यानी करीब 5 प्रतिशत वयस्क — अवसाद से जूझ रहे हैं। अब तक हम अवसाद को दिमाग की रासायनिक प्रक्रियाओं, आनुवंशिक कारणों या जीवन की परिस्थितियों से जोड़ते रहे हैं। लेकिन ताज़ा शोध बताता है कि इस कहानी में एक और अहम किरदार है — हमारी आंतों में रहने वाला सूक्ष्मजीव संसार। बैक्टीरिया, फफूंद और अनगिनत सूक्ष्मजीव न सिर्फ पाचन नियंत्रित करते हैं, बल्कि मूड और मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरी छाप छोड़ते हैं।
चूहों पर प्रयोग और चौंकाने वाले नतीजे
पहले तो वैज्ञानिकों ने बस यह नोटिस किया कि अवसाद या चिंता से जूझ रहे लोगों की आंतों का सूक्ष्मजीव संसार स्वस्थ लोगों से अलग था। लेकिन असली चौंकाने वाला खुलासा तब हुआ, जब 2016 में दो अध्ययनों में अवसाद पीड़ित इंसानों की विष्ठा चूहों की आंतों में डालने पर चूहों में भी अवसाद जैसे लक्षण दिखने लगे। वे आनंद खो बैठे, चिंताग्रस्त व्यवहार करने लगे और उनके मस्तिष्क की रसायनिकी भी बदल गई।
इससे साफ हो गया कि मानसिक रोग केवल जीन या सदमे की देन नहीं हैं; इन्हें सूक्ष्मजीव भी “स्थानांतरित” कर सकते हैं। सवाल यह उठा: अगर खराब सूक्ष्मजीव बीमारियां बढ़ा सकते हैं, तो क्या स्वस्थ सूक्ष्मजीव हमें ठीक भी कर सकते हैं?
प्रयोगों की नई दिशा
इसी सोच ने कनाडा की यूनिवर्सिटी ऑफ कैलगरी की मनोचिकित्सक वैलेरी टेलर को इंसानों पर परीक्षण करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने बाइपोलर डिसऑर्डर जैसे कठिन रोगों से शुरुआत की। तरीका था — फीकल माइक्रोबायोटा ट्रांसप्लांट (FMT) यानी स्वस्थ व्यक्ति के आंतों के सूक्ष्मजीवों का प्रत्यारोपण। शुरुआती नतीजों में कई मरीजों का मूड बेहतर हुआ। हालांकि यह हर किसी पर समान रूप से असरदार नहीं रहा, लेकिन कुछ के लिए तो यह ज़िंदगी बदल देने वाला साबित हुआ।
समस्या यह रही कि FMT यह नहीं बताता कि कौन-से विशेष बैक्टीरिया लाभकारी हैं। पूरा सूक्ष्मजीव संसार बदलता है, लेकिन सटीकता की कमी रहती है।
साइकोबायोटिक्स: अगला कदम
यही वजह है कि अब वैज्ञानिक साइकोबायोटिक्स पर काम कर रहे हैं — यानी ऐसे खास प्रोबायोटिक्स जो मानसिक स्वास्थ्य को मज़बूत कर सकें। छोटे-छोटे मानव परीक्षण बताते हैं कि ये अपने आप में अवसाद का इलाज तो नहीं, लेकिन मौजूदा दवाओं के असर को ज़रूर बढ़ा सकते हैं।
भोजन से इलाज?
आहार भी इस शोध का अहम हिस्सा है। हमारी डाइट सीधे तौर पर आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को प्रभावित करती है। 2017 में ऑस्ट्रेलिया में हुए एक बड़े अध्ययन में पाया गया कि मेडिटेरेनियन डाइट (फल, सब्ज़ियां, दालें, मछली और साबुत अनाज) लेने वालों में अवसाद के लक्षणों में उल्लेखनीय कमी आई। कारण यह कि ऐसा भोजन अच्छे बैक्टीरिया को पनपने का आधार देता है।
अनसुलझे सवाल
हालांकि शुरुआती परिणाम उम्मीद जगाते हैं, पर यह क्षेत्र अभी नया है। बड़े सवाल बाकी हैं:
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मानसिक स्वास्थ्य के लिए कौन-से सूक्ष्मजीव सबसे ज़रूरी हैं?
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विविधता ज़्यादा मायने रखती है या कुछ खास बैक्टीरिया?
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बदलाव कितने समय तक टिके रहना चाहिए?
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प्रोबायोटिक्स दवाओं के असर को बढ़ाते हैं या अलग तंत्र से काम करते हैं?
आगे का रास्ता
भविष्य की चिकित्सा शायद पर्सनलाइज़्ड होगी — यानी हर मरीज का इलाज उसकी आंतों के सूक्ष्मजीवों के आधार पर तय होगा। इसके लिए बड़े पैमाने पर नैदानिक परीक्षण, जीन और प्रोटीन का अध्ययन (मल्टीओमिक्स) और मस्तिष्क इमेजिंग को सूक्ष्मजीवों के डाटा से जोड़ना होगा।
फिलहाल सबसे बड़ी रुकावट है—निवेश। दवा कंपनियां प्रोबायोटिक्स या डाइट प्लान से उतना मुनाफा नहीं कमा सकतीं, जितना पेटेंटेड दवाओं से।
लेकिन एक बात तय है: यह शोध हमारी मानसिक बीमारियों की समझ को पूरी तरह बदल सकता है। अब अवसाद को केवल “दिमाग की गड़बड़ी” नहीं बल्कि शरीर, आंतों के सूक्ष्मजीव और मन के बीच जटिल संवाद का नतीजा माना जाएगा।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। खास खबर का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।