द इनसाइडर्स: मंत्री के विशेष सहायक के पांच ड्राइंग रूम का राज, आईएएस ने कांवड़ यात्रा में धोए पाप, मामा नहीं बने गजनी
द इनसाइडर्स में पढ़िए फिल्मी स्टाइल की थीम पर सरकार में चुगली आधारित अर्थव्यवस्था की चौथी श्रृंखला।

कुलदीप सिंगोरिया@9926510865
भोपाल | “चुगली आधारित अर्थव्यवस्था भाग 4” – अब तक हमने चर्चा की चुगलीकारों यानी नारद मुनि, मंथरा व हरिराम नाई की। इनके अलावा भी मतांतर से एक और प्रकार होता है, वो है “बीरबल”। बीरबल वो सॉफ्टवेयर होते हैं जिनकी हार्ड डिस्क में सभी तरह का खासकर विभाग का डेटा भरा होता है। इस प्रकार के प्राणी समय और परिस्थितियों के अनुसार हार्ड डिस्क से वो डेटा निकाल कर RAM पर साहब के समक्ष परोस देते हैं। कभी साहब के लाभ के लिये तो कभी खुद के लाभ के लिए तो कभी किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए। फिर, साहब तर्को और तथ्यों से कार्य करने को बाध्य कर देते हैं। साहब तो आते जाते रहते हैं, लेकिन ये बीरबल ही मंत्री बंगलो से लेकर हर ऑफिस को चलाते हैं। इनकी एक पहचान यह है कि इन्हें सारे तथ्य रटे रहते हैं और ये हमेशा दस्तखत करने से बचते है।
IF THERE IS A SOURCE …THERE HAS TO BE A SINK …तो साहब जिस तरह के चुगलीकार के चार प्रकार होते हैं उस तरह उनके श्रवण कर्ता साहब भी चार प्रकार के होते हैं …कच्चे कान, सेलेक्टिव कान, फ़िल्टर कान और बहरे कान। सबसे पहले बात करेंगे हम “कच्चे कान” की। कच्चे कान ..चारों किस्म के चुगलीकारों के लिए सबसे उपजाऊ भूमि। कुछ भी बीज डाल दो सही या गलत। कच्चा पक्का वाले उसका खुद का ही वृक्ष बना लेते हैं। अक्सर ऑफिस के बाद ये कच्चे कान चुगलीकारों को खुद फोन लगाते हैं। ..और बात शुरू करते हैं …”क्या खबर..क्या नई ताजी..क्या चल रहा है…माहौल बहुत बिगड़ गया है …”से…। उद्देश्य स्पष्ट…परनिंदा और आत्म प्रशंसा सुनना। चुगली कार भी मिला-मिला के परोस देते हैं। मजेदार बात ये है कि इस प्रजाति में बड़े बड़े काबिल अधिकारी और नेता ज्यादा पाए जाते हैं। कच्चे कान अपने दम्भ के परितोषण में अपनी “पक्की अक्ल(विवेक)” को दरकिनार कर अक्सर उन लोगों से भी नाराज़ हो जाते हैं या दुश्मनी बना लेते हैं जिन्होंने कुछ किया या कहा भी नहीं होता। दरअसल, विवेक को खूंटी पर टांगकर ये चुगलीकार की जाति दुश्मनी को अपना बना बैठते हैं। विवेक के अलावा इनकी धर्मपत्नियाँ अक्सर इन्हें टोकतीं हैं। लेकिन ये सबको सुनने वाले बस अपनी पत्नी और विवेक की नहीं सुनते। शेष अगले अंक में। तब तक प्रस्तुत है कर्णसुख के लिए मसालेदार खबरें चटपटे व किस्सागोई अंदाज में…
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मामा की याददाश्त पर तीर, पर निशाना चूक गया
मामा-मामी का ताजा किस्सा तो अब जिले-जिले में घूमने वाला फोक-सॉन्ग बन चुका है। विरोधियों ने मामा की याददाश्त को ऐसा मुद्दा बनाया जैसे मामा गजनी फिल्म के आमिर खान हों—हर 15 मिनट में रीसेट हो जाते हैं। लेकिन जो लोग मामा को जानते हैं, वे समझते हैं—यह असली भूल नहीं है, बल्कि पॉलिटिकल साजिश है। मामा तो शोले के ठाकुर जैसे हैं—सब याद रखते हैं, बस मौका आने पर “अब बोल मुँह से…” वाला डायलॉग मार देते हैं। सबूत? कुछ दिन पहले एक किसान के खेत में पहुंचे, पैरों से खुदाई कर बीज निकाले और ऐसे ठप्पा लगाया जैसे सिंघम कोई गाड़ी रोककर कहता है—”गलत काम कर रहा है!” उन्होंने ऐलान कर दिया—”ये नकली हैं, और इनकी जड़ कंपनियों तक जाती है।” जांच हुई तो बीज निकले किसान के अपने, यानी कंपनी तो फिल्म के एक्स्ट्रा कलाकार की तरह हाशिये पर रह गई। लेकिन मामा कहाँ भूलने वाले थे, उन्होंने अब सरकार को पत्र लिख मारा कि पूरे प्रदेश में बीज की जांच हो। अब अफसर माथा पकड़ के बैठे हैं—”ये दो सांडों की लड़ाई है, और पिसना हमें पड़ रहा है।” सारे अफसर रंगीला के गाने की तरह गुनगुना रहे हैं—“क्या करें, क्या ना करें, ये कैसी मुश्किल हाय…”
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भरोसेमंद को धोबीपछाड़
ब्यूरोक्रेसी में इन दिनों बेवफ़ा सनम का गाना “अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का…” गूंज रहा है। क्यों? डॉक्टर साहब की टीम इलेवन के भरोसेमंद खिलाड़ियों को हिट विकेट किया जा रहा है। यहाँ तक कि आग गृह जिले तक पहुँच गई—हालिया तबादले में एक अफसर को सीधे लूप लाइन भेज दिया गया, मानो चक दे इंडिया के कोच कबीर खान की तरह—”बाहर!” ये वही अफसर थे जिन पर डॉक्टर साहब का ढेर सारा आशीष था। और स्वच्छता में जिले का नाम एशिया कप जिताने जैसा ऊँचा किया था। पड़ोसी जिले के शहरी मुखिया का भी वही हाल, शानदार प्रदर्शन के बावजूद आउट कर दिया गया। अफवाह है कि बड़े साहब ने आरआर के नए रंगरूटों के लिए जगह खाली की है। जो भी हो, लेकिन इससे तो हमारी हम्माल सेवा हतोत्साहित हो जाएगी। वैसे SAS के तबादलों में नेताओं और अफसरों ने अंधा बांटे रेवड़ी वाला खेल खेला—जिसे पसंद आया, उसी को दे दिया। अब राजधानी और पुराने वाले विभाग में जमे रहने की ज़िद वालों की घर वापसी हो रही है।
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Give me another chance
फिल्म 3 Idiots का गाना—”Give me some sunshine, give me some rain, give me another chance, I wanna grow up once again”—आजकल कई अफसरों का WhatsApp स्टेटस बना हुआ है। क्योंकि SAS की जंबो लिस्ट में जिनके मनपसंद नंबर नहीं आए, उनके लिए उम्मीद की खिड़की अभी खुली है। संशोधित सूची जल्द आने वाली है, और शायद इसमें किस्मत मेहरबान हो जाए। यही हाल IAS वालों का भी है—एक और लिस्ट आने वाली है। तो साहब, हिम्मत रखिए और चक दे इंडिया की तरह मैदान में उतर जाइए—”70 मिनट हैं तुम्हारे पास, शायद पलट जाए खेल!”
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ये पब्लिक है, सब जानती है
कुछ साल पहले तत्कालीन मोहतरमा शंकराचार्य की एकात्म यात्रा में चरण पादुका लेकर चली थीं और पूरे जिले में चर्चा हो गई थी। अब उसी जिले में वर्तमान जिल्लेइलाही कांवड़ यात्रा में शामिल होकर सरकार और विचारकों का दिल जीतने में लगे हैं। हालांकि, पहले जिले में रहते हुए जमकर सियासी क्रिकेट खेली थी, पर यही पारी उनके तबादले की वजह बनी। अब उन्होंने सोचा कि फिल्म सत्यं शिवं सुंदरम् की तर्ज पर पुण्य भी कमा लें, ताकि पाप-पुण्य का बैलेंस शीट बराबर रहे। लेकिन साहब, जनता तो रोटी फिल्म के गाने की तरह कह रही है—”ये पब्लिक है, सब जानती है।”
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IPS का सपना, लेकिन टिकट कटा
IAS या IPS बनना, हर राज्य सेवा अफसर का सपना होता है—कुछ वैसे जैसे गैंग्स ऑफ वासेपुर में सरदार खान (मनोज वाजपेयी) का डायलॉग—“हमारी जिंदगी का एक ही मकसद है…” पर एक पुलिस अफसर का ये सपना पनिशमेंट के चलते टूट गया। सर्विस में लगी एक सज़ा के कारण इस बार की DPC में IPS का अवार्ड नहीं मिलेगा। यह बात उन्हें पता चली तो वे लगातार वल्लभ भवन से लेकर श्यामला हिल्स की परिक्रमा लगा रहे हैं। लेकिन हर जगह से उन्हें निराशा ही हाथ लग रही है। वैसे, अगले साल 56 की उम्र पार हो जाएगी, तो आगे भी चांस खत्म। यानी अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।
लाइन वहीं से शुरू होती है…
कालिया फिल्म का डायलॉग—”हम जहां खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है”—एक पुलिस अफसर पर बिल्कुल फिट बैठता है। IPS की DPC में 15 उम्मीदवार हैं, और टॉप 5 को ही प्रमोशन मिलना है। पहला नाम तो पनिशमेंट से बाहर हो चुका है, अगले पांच लगभग तय हैं। फिर भी नीचे नंबर वाले एक साहब इतने आश्वस्त हैं कि हर जगह कह रहे हैं—”इस बार मेरा नाम पक्का है।” शायद UPSC भी उनके लिए नियम बदल दे—क्योंकि ट्रैक रिकॉर्ड बॉर्डर फिल्म की तरह दमदार है।
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मेरी मर्जी…
फिल्म Gambler का गाना—”मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं”—कुछ अफसरों के लिए जैसे लिखा गया हो। एक IAS साहब, जो मंत्री के दामाद हैं, ने सरकार के प्रोटोकॉल में आने से मना कर दिया। जबकि इसी पद पर पहले वाले साहब तो रात-बेरात भी हाजिर हो जाते थे। बाकी अफसर अब यही सोचते हैं—”काश हम भी मंत्री के रिश्तेदार होते, तो मेरा नाम जोकर की तरह हँसते-खेलते प्रोटोकॉल से बच जाते।”
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घर का अजब भूगोल
फिल्म मुग़ल-ए-आज़म का गीत जब प्यार किया तो डरना क्या है, जिस सेट पर फिल्माया गया था, वह तो आप सभी सुधि पाठक गण के जेहन में होगा। यदि न हो तो यू ट्यूब पर गाना लगा लीजिए। और गाना सुनते हुए पढ़िए। जैसा सेट था, उसी अंदाज में भूगोल के एक प्रोफेसर साहब ने अपने सरकारी बंगले का भूगोल बदल डाला। चार-पाँच ड्राइंग रूम, जिनमें ठेकेदार की हैसियत के हिसाब से मेहमाननवाज़ी होती है— अमीर ठेकेदार के लिए ड्राईफ्रूट और विदेशी सुरा, जबकि आम ठेकेदार के लिए बस पानी और हंसी-मजाक।
मगर इस बार जिस मंत्राणी के यहाँ पोस्टिंग है, वहाँ ठेकेदारों को विभाग के और लोग हाइजैक कर लेते हैं, तो बंगले की रौनक कम हो गई है। वैसे साहब बिहार से ताल्लुक रखते हैं और गरीबी हटाओ नारे से करियर शुरू कर परिवार के लिए सात पुश्तों से ज्यादा का इंतजाम कर चुके हैं। सुना है पिछली पोस्टिंग में मंत्री को ही चूना लगा दिया था, और रकम अब तक वापस नहीं की। यानी मंत्री भी उनसे विजय हासिल नहीं कर पाए।